भारत में व्यवसाय: एक सभ्यतागत विरासत बनाम खोखली स्टार्ट-अप संस्कृति का हाइप

Dharmender Singh Malik
10 Min Read
भारत में व्यवसाय: एक सभ्यतागत विरासत बनाम खोखली स्टार्ट-अप संस्कृति का हाइप

बृज खंडेलवाल

भारत की व्यावसायिक परंपरा कोई आधुनिक आविष्कार नहीं, बल्कि सदियों पुरानी एक जीवंत सभ्यता और सुस्थापित परंपरा है। यह स्थिरता, अडिग सामाजिक जिम्मेदारी और उच्च नैतिक मूल्यों की मजबूत नींव पर टिकी है। हमारे देश में व्यापार को कभी भी केवल लाभ कमाने का संकीर्ण साधन नहीं माना गया, बल्कि इसे एक व्यापक सामाजिक प्रतिबद्धता के रूप में देखा गया। महात्मा गांधी का कालजयी ट्रस्टीशिप सिद्धांत इसी गहन विचारधारा को दर्शाता है, जहाँ दूरदर्शी व्यवसायी स्वयं को समाज के संसाधनों का ट्रस्टी मानते थे और अपने धन का उपयोग जनहित व सामाजिक कल्याण के लिए प्राथमिकता देते थे। यह सिद्धांत व्यवसाय को केवल आर्थिक गतिविधि तक सीमित नहीं रखता था, बल्कि इसे नैतिक व सामाजिक कर्तव्य के उच्च पायदान पर स्थापित करता था।

इसके बिल्कुल विपरीत, आज की तथाकथित चमकदार स्टार्ट-अप संस्कृति इस शाश्वत सिद्धांत की विपरीत दिशा में बढ़ती दिखाई दे रही है। यह संस्कृति त्वरित व अवास्तविक मुनाफे, अनैतिक शॉर्टकट्स और बिना किसी दूरदर्शी दीर्घकालिक रणनीति के व्यापार को बढ़ावा दे रही है, जो न केवल भारत के सतत व समावेशी औद्योगिक विकास के लिए एक गंभीर खतरा है, बल्कि हमारी सदियों पुरानी व्यावसायिक नैतिकता व मूल्यों को भी कमजोर कर रही है।

अतीत के स्वर्णिम दौर में भारतीय व्यापारी अपनी कठिनाई से जुटाई गई बचत, अटूट सामाजिक विश्वास और पीढ़ियों से चली आ रही पारिवारिक प्रतिष्ठा की मजबूत नींव पर धैर्यपूर्वक उद्योग स्थापित करते थे। वे रिस्क उठाने से कभी नहीं हिचकिचाते थे, लेकिन उनका एकमात्र लक्ष्य क्षणिक मुनाफा कमाना नहीं, बल्कि एक मजबूत, स्थायी व दीर्घकालिक व्यावसायिक साम्राज्य खड़ा करना होता था, जो आने वाली पीढ़ियों के लिए भी समृद्धि ला सके। टाटा, बिड़ला, बजाज, गोदरेज जैसे दूरदर्शी उद्योगपतियों ने दशकों की अथक मेहनत, ईमानदारी और समर्पण से अपने विशाल औद्योगिक साम्राज्य खड़े किए, जिन्होंने न केवल लाखों लोगों को रोजगार के अवसर प्रदान किए, बल्कि देश की आर्थिक संरचना को अभूतपूर्व मजबूती भी दी। इन व्यावसायिक घरानों ने सामाजिक कल्याण और राष्ट्र निर्माण में भी सक्रिय भूमिका निभाई, जिससे व्यवसाय और समाज के बीच एक अटूट व पारस्परिक लाभकारी संबंध स्थापित हुआ।

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वहीं आज की स्टार्ट-अप संस्कृति पश्चिमी फास्ट फूड बिजनेस मॉडल की एक त्रुटिपूर्ण नकल प्रतीत होती है। यहाँ अधिकांश तथाकथित उद्यमी वास्तविक उत्पादन या गुणवत्तापूर्ण सेवा के बजाय आकर्षक विज्ञापन, निवेशकों से प्राप्त भारी धनराशि और शेयर बाजार में कृत्रिम उछाल व हेराफेरी पर अधिक ध्यान केंद्रित करते हैं। अधिकांश स्टार्ट-अप्स का प्राथमिक लक्ष्य एक एग्जिट स्ट्रैटेजी होता है—यानी किसी तरह कंपनी को बेचकर रातों-रात भारी मुनाफा कमाना, न कि एक स्थायी व मूल्यवान उद्योग का निर्माण करना, जो दीर्घकाल में देश की अर्थव्यवस्था और समाज के लिए लाभकारी हो। यह सतही मॉडल चीन या अमेरिका जैसे देशों की नकल पर आधारित है, लेकिन भारत की अनूठी आर्थिक, सामाजिक व सांस्कृतिक संरचना इसके लिए बिल्कुल अनुपयुक्त है।

केंद्रीय वाणिज्य एवं उद्योग मंत्री पीयूष गोयल ने हाल ही में स्टार्ट-अप संस्कृति की दिशा और प्राथमिकताओं पर गहरी चिंता व्यक्त की है। उनका स्पष्ट मानना है कि डिलीवरी बॉयज के विशाल नेटवर्क को बढ़ावा देने वाले स्टार्ट-अप्स वास्तविक व स्थायी औद्योगिक विकास में कोई सार्थक योगदान नहीं दे रहे। ये कंपनियाँ अक्सर केवल बिचौलिए का काम करती हैं—न तो ये स्वयं कुछ उत्पादन करती हैं और न ही स्थायी व स्थिर रोजगार के अवसर पैदा करती हैं। स्विगी, ज़ोमेटो, ओला जैसे प्लेटफॉर्म्स ने शहरी बाजारों पर तेजी से कब्जा तो कर लिया है, लेकिन इन्होंने असंगठित क्षेत्र के छोटे दुकानदारों व पारंपरिक व्यवसायों को भारी नुकसान पहुँचाया है, जिससे लाखों लोगों की आजीविका संकट में पड़ गई है। नेशनल रेस्टोरेंट एसोसिएशन ऑफ इंडिया (NRAI) के 2024 के एक सर्वे के अनुसार, इन एग्रीगेटर प्लेटफॉर्म्स के उदय के कारण पिछले पाँच वर्षों में 30% से अधिक छोटे व मध्यम स्तर के रेस्तरां बंद हो चुके हैं या गंभीर वित्तीय संकट का सामना कर रहे हैं।

इसके अलावा, इनका तथाकथित गिग इकॉनमी मॉडल श्रमिकों के हितों के सीधे विरुद्ध है। डिलीवरी एजेंट्स और कैब ड्राइवर्स जैसे कर्मचारियों को न तो नौकरी की सुरक्षा मिलती है और न ही स्वास्थ्य बीमा या पेंशन जैसी बुनियादी सामाजिक सुरक्षा का कोई प्रावधान। यह व्यवस्था एक नए प्रकार के शोषण को बढ़ावा देती है, जहाँ श्रमिकों को कम मजदूरी में अनिश्चित परिस्थितियों में काम करने के लिए मजबूर किया जाता है, जबकि पारंपरिक उद्योगों में कर्मचारियों को स्थायी रोजगार और सम्मानजनक कार्य वातावरण मिलता था। नीति आयोग की 2023 की एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत में गिग वर्कर्स की औसत मासिक आय संगठित क्षेत्र के कर्मचारियों से 35% कम है, और केवल 12% को किसी प्रकार की सामाजिक सुरक्षा प्राप्त है।

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आजकल शार्क टैंक जैसे टीवी शोज़ के माध्यम से स्टार्ट-अप्स की दुनिया को अत्यधिक ग्लैमरस और आकर्षक बनाकर पेश किया जा रहा है। यहाँ युवा उद्यमी निवेशकों के सामने अपने कथित अभिनव विचार पेश करते हैं और रातों-रात करोड़पति बनने का सपना देखते हैं। लेकिन क्या यह वास्तव में असली व्यापार है? अधिकांश मामलों में, ये विचार या तो पश्चिमी सफल मॉडल्स की सस्ती नकल होते हैं या बिना किसी गहन बाजार शोध और व्यावहारिक मूल्यांकन के जल्दबाजी में शुरू कर दिए जाते हैं।

इस प्रकार, प्रोफेसर पारस नाथ चौधरी के मुताबिक ये सतही और चमकदार संस्कृति युवाओं को “जल्दी अमीर बनो” का एक खतरनाक भ्रम देती है, जबकि वास्तविक व स्थायी व्यापार में वर्षों का धैर्य, अडिग अनुशासन, सावधानीपूर्वक योजना और दीर्घकालिक दृष्टिकोण आवश्यक होता है। पारिवारिक व्यवसाय, जो पीढ़ियों की मेहनत और ज्ञान के हस्तांतरण से धीरे-धीरे विकसित होते हैं, सफलता की एक मजबूत नींव प्रदान करते हैं, जबकि स्टार्ट-अप संस्कृति अक्सर “फेल फास्ट, लर्न फास्टर” (जल्दी असफल होकर तेजी से सीखो) का एक गलत व गैर-जिम्मेदाराना नारा बढ़ावा देती है।”

कुछ लोग भारत की स्टार्ट-अप संस्कृति की तुलना चीन से करते हैं, लेकिन यह बिल्कुल गलत है। चीन ने अपने मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर को मजबूत करके वैश्विक बाजार पर कब्जा किया है। वहाँ के स्टार्ट-अप्स ने प्रौद्योगिकी और उत्पादन पर ध्यान केंद्रित किया, जबकि भारत में अधिकांश स्टार्ट-अप्स एग्रीगेटर मॉडल पर चल रहे हैं।

भारत के कुछ स्टार्ट-अप्स फ्रॉड टेक्नोलॉजी (जैसे बायोमेट्रिक हैकिंग, संवेदनशील डेटा चोरी) में लिप्त पाए गए हैं। पेटीएम, बायजू, OLX जैसी कुछ बड़ी कंपनियों पर हाल के वर्षों में वित्तीय अनियमितताओं और घोटालों के गंभीर आरोप लग चुके हैं।

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क्या यही हमारे देश का “नया व्यावसायिक नैतिकता” है? क्या यही दिशा है जिसमें हम आगे बढ़ना चाहते हैं? भारतीय रिजर्व बैंक (RBI) की 2024 की एक रिपोर्ट में डिजिटल प्लेटफॉर्म्स और फिनटेक कंपनियों से जुड़े मामलों सहित वित्तीय धोखाधड़ी के बढ़ते मामलों पर चिंता व्यक्त की गई है।

सरकार को अब इस चमक-दमक के पीछे की सच्चाई को पहचानना चाहिए और वास्तविक आर्थिक विकास के लिए ठोस कदम उठाने चाहिए। हमें लघु एवं मध्यम उद्यमों (MSMEs) को प्रोत्साहित करने की सख्त आवश्यकता है, जो देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ हैं और लाखों लोगों को वास्तविक रोजगार प्रदान करते हैं, न कि वेंचर कैपिटल फंडेड स्टार्ट-अप्स को। हमें मेक इन इंडिया पहल को उसके वास्तविक अर्थों में लागू करना होगा, जहाँ देश में वास्तविक उत्पादन बढ़े, न कि केवल ऐप-आधारित सेवाओं का विस्तार।

पारिवारिक व्यवसायों को आधुनिक तकनीक अपनाने और विस्तार करने में मदद के लिए विशेष प्रोत्साहन व कर छूट प्रदान की जानी चाहिए। सरकार को उन स्टार्ट-अप्स को सक्रिय रूप से समर्थन देना चाहिए जो विनिर्माण, कृषि और महत्वपूर्ण प्रौद्योगिकी विकास जैसे मूलभूत क्षेत्रों में महत्वपूर्ण योगदान देते हैं। डिलीवरी और कैब ड्राइवर्स जैसे गिग वर्कर्स को सामाजिक सुरक्षा और निष्पक्ष कार्य परिस्थितियों का लाभ मिलना चाहिए। विदेशी मॉडल्स की नकल करके बाजार में आने वाली स्टार्ट-अप कंपनियों को सरकारी फंडिंग और अन्य लाभों से वंचित किया जाना चाहिए।

स्टार्ट-अप संस्कृति का ग्लैमर आकर्षक लग सकता है, लेकिन यह भारत की पारंपरिक व्यावसायिक मूल्यों के अनुरूप नहीं है। हमें स्थायी उद्योग चाहिए, जो दीर्घकालिक रोजगार और समृद्धि प्रदान करें, न कि केवल अल्पकालिक व खोखले फ्लैश इन द पैन स्टार्ट-अप्स।

 

 

 

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Editor in Chief of Agra Bharat Hindi Dainik Newspaper
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