बेंगलुरु: भारतीय राजनीति में फेक न्यूज़ (फर्जी खबरों) का ज़हर किस कदर फैल चुका है, इसका एक और सनसनीखेज मामला सामने आया है। हाल ही में कर्नाटक उच्च न्यायालय ने एक अहम फैसले में भाजपा आईटी सेल प्रमुख अमित मालवीय और जाने-माने पत्रकार अर्णब गोस्वामी के खिलाफ दर्ज एफआईआर की जांच पर अंतरिम रोक लगा दी है। यह मामला एक ऐसी तस्वीर से जुड़ा है जिसे जानबूझकर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के तुर्की स्थित “कार्यालय” के रूप में प्रसारित किया गया था, जबकि हकीकत में वह तस्वीर इस्तांबुल कांग्रेस सेंटर – एक सार्वजनिक कन्वेंशन सेंटर – की थी, जिसका कांग्रेस पार्टी से कोई लेना-देना नहीं था।
फर्जी दावे का पूरा मामला
दरअसल, यह पूरा विवाद तब शुरू हुआ जब सोशल मीडिया पर एक तस्वीर वायरल हुई, जिसे दावा किया गया कि वह तुर्की में कांग्रेस का कार्यालय है। भाजपा के आईटी सेल प्रमुख अमित मालवीय ने इस तस्वीर को अपने सोशल मीडिया हैंडल से शेयर करते हुए इसे कांग्रेस पार्टी से जोड़ा। बाद में, रिपब्लिक टीवी पर अर्णब गोस्वामी की एक प्रस्तुति में भी इस तस्वीर का इस्तेमाल किया गया, जिसने इस फर्जी दावे को और हवा दी। हालांकि, जल्द ही यह खुलासा हो गया कि यह तस्वीर इस्तांबुल कांग्रेस सेंटर की थी, जो एक बहुउद्देशीय सार्वजनिक सुविधा है और किसी भी राजनीतिक दल से संबंधित नहीं है। इस खुलासे के बाद कांग्रेस पार्टी ने इसे अपने खिलाफ एक सुनियोजित दुष्प्रचार अभियान बताते हुए मालवीय और गोस्वामी के खिलाफ एफआईआर दर्ज कराई।
कोर्ट का हस्तक्षेप और याचिकाकर्ताओं का तर्क
22 मई, 2025 को कर्नाटक उच्च न्यायालय ने इस मामले में सुनवाई करते हुए एफआईआर की जांच पर अंतरिम स्थगन आदेश जारी किया। याचिकाकर्ताओं, अमित मालवीय और अर्णब गोस्वामी की ओर से अदालत में तर्क दिया गया कि प्रसारित वीडियो केवल एक पत्रकार की राय थी, न कि जानबूझकर फैलाया गया दुष्प्रचार। गोस्वामी के वकील ने यह भी बताया कि तस्वीर का गलत उपयोग उनके “जूनियर एडिटर” की एक तकनीकी चूक थी, जिसके लिए रिपब्लिक टीवी ने सार्वजनिक रूप से माफी भी जारी की है। न्यायालय ने प्रारंभिक तौर पर पाया कि एफआईआर में कुछ धाराओं का उल्लेख प्रक्रियात्मक रूप से त्रुटिपूर्ण था, जिसके आधार पर जांच पर अस्थायी रोक लगाई गई।
राज्य सरकार का रुख और फेक न्यूज़ का बढ़ता खतरा
हालांकि, राज्य सरकार ने अदालत में अपना पक्ष रखते हुए कहा कि यह केवल एक तकनीकी भूल नहीं थी, बल्कि एक सोची-समझी साजिश का हिस्सा था। सरकार के अनुसार, इस फर्जी नैरेटिव का उद्देश्य स्पष्ट रूप से विपक्षी दल कांग्रेस की छवि को धूमिल करना था। यह घटना भारत में फेक न्यूज़ के एक खतरनाक हथियार के रूप में उभरने की प्रवृत्ति को एक बार फिर उजागर करती है। ‘कांग्रेस’ शब्द का विदेश में उपयोग देखकर उसे भारतीय राजनीतिक पार्टी से जोड़ देना, एक सोची-समझी रणनीति लगती है, जिसका मकसद सामाजिक ध्रुवीकरण को बढ़ावा देना और लोकतांत्रिक विमर्श को दूषित करना है।
मीडिया की विश्वसनीयता और नैतिक उत्तरदायित्व पर सवाल
इस पूरे प्रकरण में अर्णब गोस्वामी जैसे वरिष्ठ पत्रकार की भूमिका पर गंभीर सवाल उठते हैं, जिनकी प्रस्तुतियों को व्यापक दर्शक वर्ग देखता है। वहीं, एक राष्ट्रीय पार्टी के डिजिटल प्रमुख द्वारा इस तरह की फर्जी पोस्ट को सार्वजनिक मंच पर वैधता प्रदान करना, पत्रकारिता और राजनीति के बीच एक अस्वस्थ गठबंधन की पुष्टि करता है। यह घटना मीडिया की विश्वसनीयता और उसके नैतिक उत्तरदायित्व पर गहरा प्रश्नचिह्न लगाती है। प्रेस की स्वतंत्रता महत्वपूर्ण है, लेकिन इसके साथ ही तथ्यों की जांच और जिम्मेदारी भी उतनी ही आवश्यक है।
लोकतंत्र की रक्षा में अदालत और नागरिकों की भूमिका
अदालत का हस्तक्षेप आवश्यक था ताकि एकतरफा कार्रवाई से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता प्रभावित न हो। यह सुनिश्चित करना न्यायालय का दायित्व है कि कानूनी प्रक्रिया का दुरुपयोग न हो। हालांकि, यह भी उतना ही महत्वपूर्ण है कि इस मामले की निष्पक्ष जांच हो और यह निर्धारित किया जाए कि यह वास्तव में एक साधारण भूल थी या एक सोची-समझी राजनीतिक चाल।
लोकतंत्र की रक्षा केवल अदालतों के हस्तक्षेप से नहीं होगी।इसके लिए नागरिकों को भी सूचना साक्षरता, तथ्य-जांच और नैतिक विवेक के स्तर पर अधिक सजग रहना होगा। यदि नागरिक फर्जी खबरों को पहचानना और उनका खंडन करना नहीं सीखेंगे, तो ऐसे फेक नैरेटिव हमारी लोकतांत्रिक संस्थाओं को भीतर से खोखला कर देंगे। यह घटना हमें याद दिलाती है कि एक स्वस्थ लोकतंत्र के लिए केवल स्वतंत्र न्यायपालिका ही नहीं, बल्कि एक जागरूक और सूचित नागरिक समाज भी अनिवार्य है।