रायपुर: अंतरराष्ट्रीय मंचों पर अपनी हंसी की बारीक परतों में गंभीर बातें कहने वाले, पद्मश्री से सम्मानित हास्य कवि डॉ. सुरेंद्र दुबे अब हमारे बीच नहीं रहे। गुरुवार को दिल का दौरा पड़ने से उनका निधन हो गया। आज मारवाड़ी श्मशान घाट पर उनका अंतिम संस्कार किया गया, जिसमें प्रख्यात कवि कुमार विश्वास भी शामिल हुए। विश्वास ने डॉ. दुबे के निधन को प्रदेश के लिए बड़ी क्षति बताते हुए कहा कि वे छत्तीसगढ़ की बात दमदारी से रखते थे।
यह बेहद दुखद है कि शब्दों के इस जादूगर के लिए एक ‘अभिनंदन ग्रंथ’ तैयार किया जा रहा था, जिसमें उनके जीवन, लेखनी, संघर्ष और स्मृतियों को सहेजने की कोशिश की जा रही थी, लेकिन यह किताब पूरी होने से पहले ही वे इस दुनिया को अलविदा कह गए। प्रकाशक सुधीर शर्मा ने बताया कि पिछले चार महीनों से इस ग्रंथ पर काम चल रहा था, जिसमें उनके पिता गर्जन सिंह दुबे, पुत्र डॉ. अभिषेक दुबे और खुद सुरेंद्र दुबे की दुर्लभ रचनाएं, तस्वीरें और पत्र शामिल थे। इस किताब का विमोचन अगले महीने होना था।
बेमेतरा से अमेरिका तक: एक डॉक्टर, जो बन गया कवि
8 अगस्त 1953 को छत्तीसगढ़ के बेमेतरा (तब दुर्ग जिले का हिस्सा) में जन्मे डॉ. सुरेंद्र दुबे पेशे से आयुर्वेदिक डॉक्टर थे। लेकिन उनकी असली पहचान एक ऐसे कवि की थी, जिसकी कलम हंसी की चाशनी में लिपटी व्यंग्य की धार लिए चलती थी। वे जीवन के गंभीर पहलुओं को भी हल्के-फुल्के अंदाज में कह जाते, और श्रोताओं को हंसाते-हंसाते सोचने पर मजबूर कर देते थे।
उनकी रचनात्मक शैली ‘काका हाथरसी’ की परंपरा से जुड़ी थी, मगर उसमें छत्तीसगढ़ की मिट्टी की सोंधी महक और व्यक्तिगत अनुभवों की गर्माहट साफ झलकती थी। छत्तीसगढ़ी और हिंदी के मंचों पर उन्होंने हास्य कविता को नई पहचान दिलाई। उन्होंने पांच किताबें लिखीं, और कई नाटक व टेलीविजन स्क्रिप्ट्स भी रचे।
1980 में वे पहली बार अमेरिका गए। इसके बाद 11 देशों और अमेरिका के 52 शहरों में उन्होंने कविता पाठ किया। उनकी कविताएं – ‘दु के पहाड़ा ल चार बार पढ़’, ‘टाइगर अभी जिंदा है’, ‘मोदी के आने से फर्क पड़ा है’ – आम बोलचाल में भी दोहराई जाने लगीं। अयोध्या राम मंदिर के प्राण प्रतिष्ठा के समय उन्होंने कविता लिखी – “पांच अगस्त का सूरज राघव को लाने वाला है, राम भक्त जयघोष करो मंदिर बनने वाला है…” जो खूब चर्चित हुई।
सम्मान और राजनीतिक झुकाव
2010 में भारत सरकार ने उन्हें पद्मश्री से सम्मानित किया। इससे पहले 2008 में उन्हें काका हाथरसी हास्य रत्न पुरस्कार मिला था। हालांकि, 2018 में जब उन्होंने केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह की उपस्थिति में भाजपा का दामन थामा, तब से वे कांग्रेस शासित राज्य सरकार के सांस्कृतिक आयोजनों से धीरे-धीरे दूर होते चले गए। इस उपेक्षा की टीस कभी उन्होंने सीधे नहीं कही, लेकिन मंच पर उनकी व्यंग्य कविताएं उनकी पीड़ा बयान कर देती थीं।
आज जब डॉ. सुरेंद्र दुबे हमारे बीच नहीं हैं, तब उनकी सबसे बड़ी विरासत है – वो हंसी, जो उन्होंने जीवन भर बांटी… और वो शब्द, जो अब अमर हो गए हैं। उनकी कमी भारतीय हास्य कविता के मंच पर हमेशा महसूस की जाएगी।