अन्नकूट: भारत की प्राचीन कृतज्ञता की पॉटलक परंपरा

Dharmender Singh Malik
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बृज खंडेलवाल

आजकल शहरी आंटीजी आए दिन पॉटलक पार्टियों का आयोजन करती हैं, यह सोचकर कि यह कोई पश्चिमी, आधुनिक फैशन है। लेकिन भारत में हजारों वर्ष पहले श्रीकृष्ण ने अन्नकूट प्रथा के माध्यम से इसी पॉटलक भोज की सामूहिक भावना को प्रारंभ कर समाज को एक महत्वपूर्ण संदेश दिया था।

दीपावली के अगले दिन भारत के विभिन्न हिस्सों में समुदाय मिलकर अन्नकूट पर्व मनाते हैं — यह उत्सव समृद्धि, साझेदारी और दिव्य कृतज्ञता का प्रतीक है। जैसे किसी सामुदायिक पॉटलक में सभी लोग कुछ-न-कुछ लेकर आते हैं, वैसे ही यहाँ भी कोई मिठाइयाँ लाता है, कोई नमकीन या मौसमी व्यंजन। इन्हें सबसे पहले श्रीकृष्ण को गोवर्धन पूजन के रूप में अर्पित किया जाता है और बाद में भक्तों में बाँटा जाता है। यह भारत की हजारों साल पुरानी परंपरा है जो सिखाती है कि भोजन तभी पवित्र होता है जब वह बाँटा जाए — यह एक ऐसी लोक-संस्कृति है जो परिवार, पड़ोसी और अजनबी सभी को एक ही उत्सव-स्पंदन में जोड़ देती है।

ब्रजभूमि की पावन धरा पर, जहाँ मिट्टी का हर कण श्रीकृष्ण की लीलाओं से रंजित है, दीपावली की रोशनी धीरे-धीरे अन्नकूट पर्व के गहन, आध्यात्मिक उत्सव में बदल जाती है। इस वर्ष मथुरा, वृंदावन, गोकुल और नंदगाँव जैसी नगरीय बस्तियाँ फिर से आस्था और उल्लास से झूम उठी हैं। देश-विदेश से आए श्रद्धालु गोवर्धन पूजन और सामूहिक भोज में सम्मिलित हो रहे हैं। पुष्टिमार्गीय वैष्णव परंपरा में यह उत्सव मंगलवार को मनाया गया, जबकि ब्रज मंडल भर में बुधवार को मंदिरों और सामुदायिक केन्द्रों ने भक्ति और सहभागिता से वातावरण भर दिया।

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इस पर्व का केन्द्र बिंदु है प्रतीकात्मक गोवर्धन पर्वत। पुराणों के अनुसार श्रीकृष्ण ने इंद्र के क्रोध से ब्रजवासियों की रक्षा हेतु अपनी कनिष्ठा उंगली पर गोवर्धन पर्वत उठा लिया था। आज श्रद्धालु इस दिव्य संरक्षण और पर्यावरणीय संरक्षण के प्रतीक को गोबर से बनाए गए छोटे-छोटे गोवर्धन पर्वतों द्वारा स्मरण करते हैं — जिन पर फूलों की सजावट कर दूध, मिठाई और अन्य अर्पण किए जाते हैं। आधुनिक काल में ये पर्वत कभी-कभी बैलगाड़ियों पर रखकर नदी या पोखर में विसर्जन हेतु ले जाए जाते हैं, जहाँ संगीत, नृत्य और भक्तिगीतों के बीच सामूहिक आनंदचित्तता का वातावरण बनता है।

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अन्नकूट पर्व का चरम बिंदु है अन्नकूट-भोज — या कहें “भोजन का पर्वत”। यह भारत की प्राचीन कृतज्ञता की सामुदायिक दावत है। दीपावली के उपरांत समुदाय मिलकर इस उत्सव को मनाते हैं। हर कोई अपनी क्षमता के अनुसार व्यंजन लाता है — मिठाइयाँ, पकवान, मौसमी सब्जियाँ — जिन्हें पहले श्रीकृष्ण को अर्पित किया जाता है और बाद में सब मिलकर बाँटते हैं। यह क्रम भारत की उस सांस्कृतिक आत्मा का प्रतीक है जो कहती है कि भोजन साझा करने से ही पवित्र होता है। लगभग छप्पन प्रकार के व्यंजन — जिनमें विशेष “गड्ढ” नामक मिश्रित सब्जी भी शामिल है — इस पर्व का हिस्सा होते हैं। इस समय हर सब्जी के दाम भी बढ़ जाते हैं, क्योंकि माँग अत्यधिक बढ़ जाती है।

अन्नकूट और गोवर्धन पूजन केवल धार्मिक आयोजन नहीं, बल्कि एक गहरी सामाजिक और पर्यावरणीय शिक्षा भी देते हैं। भगवान कृष्ण ने अपने कर्मों से बताया कि प्रकृति केवल पूजनीय नहीं, संरक्षित किए जाने योग्य है। उन्होंने इंद्र की पूजा से ध्यान हटाकर स्थानीय पर्वत और गौ-धन की पूजा पर बल दिया, जिससे प्रकृति और मनुष्य के बीच टिकाऊ संबंध बना।

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अन्नकूट भोज में सबको शामिल करने की परंपरा समावेशिता और सामाजिक समानता का परिचायक है। श्रीकृष्ण ने यह संदेश दिया कि समृद्धि तभी सार्थक है जब वह सबमें बाँटी जाए। यह दैवी समाजवाद का अनूठा रूप है जहाँ अन्न और आनंद सबके लिए है — जाति, वर्ग, और स्थिति से परे। यह उत्सव वर्ष दर वर्ष हमें याद दिलाता है कि सच्ची भक्ति केवल आराधना नहीं, बल्कि अपने पर्यावरण और समाज के प्रति प्रेमपूर्ण कर्म है। और यही साझा कृतज्ञता, जब सामूहिक हो जाती है — तो वह सबसे श्रेष्ठ अर्पण बन जाती है।

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Editor in Chief of Agra Bharat Hindi Dainik Newspaper
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