बृज खंडेलवाल
लंबे समय से क्लासिकल जर्नलिज्म के गुरु कहते आ रहे हैं कि जर्नलिस्ट्स को न तो किसी के पक्ष में बोलना चाहिए और न किसी के विरोध में। मतलब जर्नलिस्ट को ‘ना काहू से दोस्ती, ना काहू से बैर’ के सिद्धांत पर चलना चाहिए। लेकिन हाल के वर्षों में हमारे देश की मीडिया बेवजह की बहस में पड़कर विभिन्न मुद्दों पर लगातार पक्षपातपूर्ण रवैया अपना रही है। मीडिया की इस करतूत पर जनता की नजरें भी हैं। मीडिया ट्रायल या फिर मीडिया द्वारा ट्रायल आम बात हो गई है। अधिकांश मामलों में मीडिया द्वारा लिए गए शीघ्र निर्णय से पीड़ित को अपना पक्ष रखने का अवसर तक नहीं मिलता है। अक्सर टेलिविजन पर चैट शो के दौरान एंकर्स पीड़ित के ऊपर अपनी इच्छाओं (जो चाहते हैं) को थोपते हैं। साथ ही, वे पूर्वाग्रह से ग्रस्त अपने विचारों को भी उन पीड़ितों पर लादते हैं।
पत्रकारिता का क्लासिकल दृष्टिकोण
अगर अपको सही और गलत में से चुनना हो, तो आप न्यूट्रल (तटस्थ) कैसे रह सकते हैं? यह सवाल है सोशल कॉमेंट्रेटर पारस नाथ चौधरी का। उनका कहना है कि भारत में पहले समाचारपत्र के जन्म हिकी के गजट से लेकर आज तक “भारतीय मीडिया हमेशा ही विरोधात्मक भूमिका में रही है। वह एक गैप को भरने के साथ प्रबुद्ध विपक्ष के रूप में भी काम करती रही है। भारतीय समाचार पत्रों ने स्वतंत्रता आंदोलन के समय अहम भूमिका निभाई। खासतौर पर वर्नाक्यूलर प्रेस ने। तब से लेकर आज तक यह परंपरा चलती आ रही है।”
क्या पत्रकार को एक्टिविस्ट बनना चाहिए?
एक सेमिनार ‘कैन ऐक्टिविस्ट मीडिया बी रिस्पॉन्सिबल’ में भाषण करते हुए पूर्व एडिटर शेखर गुप्ता ने कहा था कि जर्नलिज्म धैर्य रखने वाला पेशा है। सच्चाई तक पहुंचने के लिए जांच की जरूरत होती है, न कि एक्टिविज्म की। एक्टिविस्ट मीडिया गैर जिम्मेदार मीडिया है, जिससे बचना चाहिए। अगर चिंता होनी चाहिए, तो स्टोरी के ऊपर सक्रियता को लेकर, उसके तह में जाने को लेकर।
सुपारी जर्नलिज्म – एक नई समस्या
दरअसल पत्रकारिता या तो अच्छी होती या खराब। एक्टिविज्म या नॉन एक्टिविज्म जैसी कोई चीज नहीं होती। अगर अच्छी पत्रकारिता के फलस्वरूप कोई नतीजा आता है तो ये ‘बाइप्रोडक्ट’ है। अपवादों को छोड़कर पत्रकारों को अपनी स्टोरी के परिणामों की चिंता नहीं करनी चाहिए। जैसे ही आप परिणामों की चिंता करने लगते हैं, स्टोरी दूषित हो जाती है और आप एक एजेंडा फॉलो करना शुरू कर देते हैं।
पत्रकारिता के लिए सबसे बड़ा जहर वो पत्रकार, संपादक और मालिक हैं जिनका एक एजेंडा है और जो एक नजरिया प्रमोट करते रहते हैं। इस तरह का एक्टिविज्म कहीं से भी पत्रकारिता नहीं होता।
हालांकि इस विषय पर दिग्गज पत्रकार अलग नजरिया रखते हैं। उन्हें एक्टिविस्ट मीडिया से कोई दिक्कत नहीं है। उनके मुताबिक पत्रकारिता के पेशवर मानकों को गिराने का काम दरअसल ‘सुपारी जर्नलिज्म’ करती है। ‘सुपारी जर्नलिज्म’ पहले से तय एजेंडे के साथ, आधा अधूरे तथ्यों और सनसनी फैलाती बातों के आधार पर किसी खास संस्था-व्यक्ति को टारगेट करने की प्रवृत्ति है।
लखनऊ के एक्टिविस्ट राम किशोर कहते हैं कि मीडिया के नए मालिक अपनी हितों को साधने और निर्णयों को प्रभावित करने के लिए मीडिया प्लेटफॉर्म का इस्तेमाल करते हैं। इससे मीडिया की विश्वसनीयता को लंबे समय के लिए कायम नहीं रखा जा सकता है।
स्क्रीनिंग और फिल्टरिंग की प्रक्रिया का दम घुट रहा है। आज कोई भी जर्नलिस्ट बन सकता है। चाहे उसमें प्रतिभा और पैशन हो या न हो। इससे कंटेंट की गुणवत्ता प्रभावित होती है। सीनियर जर्नलिस्ट अक्सर युवाओं की प्रतिभा निखारने से हिचकिचाते हैं, क्योंकि आजकल हर युवा पत्रकार के शॉर्टकट प्रक्रिया से आगे पहुंचने की जल्दी रहती है। आज की गला काट प्रतिस्पर्धा में ब्रेकिंग-न्यूज-सिंड्रोम खबरों की विश्वसनीयता से खेल रहा है। बिना जांच और सत्यापन के आधा सच खबरें प्रसारित की जाती हैं। वैसे, समाज पर सूचना या खबर को लेकर कम्युनिकेशन गुरु मार्शल मैक्लुहान के “all-at-once-ness” गहरा प्रभाव देखा जा सकता है।
मीडिया की भूमिका पर सवाल
हम देख रहे हैं कि मीडिया में पतन का कारण ज्यादातर संपादक नाम की संस्था की भूमिका और नियंत्रण के कमजोर पड़ने की वजह से हुआ है। संपादकीय विभाग के विषय में नीतिगत मामलों को अक्सर एडवरटाइजमेंट मैनेजर्स द्वारा प्रभावित किया जाता है। अनुभवी पत्रकार भी महसूस कर रहे हैं कि आज के परिदृश्य में जब वैकल्पिक मीडिया एक बड़े खिलाड़ी के रूप में उभर रहा है, ऐसे में कई अनुभवी पत्रकारों का मानना है कि कि अब संपादकीय हस्तक्षेप और संपादक की भूमिका और अधिक महत्वपूर्ण हो गई है।