सालाना 25,000 से ज्यादा स्टूडेंट्स पत्रकारिता और जन संचार पढ़कर निकलते हैं, तब ये हालत है मीडिया की!!
बृज खंडेलवाल
भारत में पिछले दो दशकों में मीडिया में जबरदस्त विस्फोट हुआ है, जो पहले मुख्य रूप से प्रिंट-प्रधान था, अब डिजिटलीकरण, तकनीकी प्रगति और इंटरनेट की बढ़ती पहुंच के कारण एक बहुआयामी तंत्र में बदल गया है। 2023 में मीडिया और मनोरंजन क्षेत्र का राजस्व 2,450 अरब रुपये तक पहुंचा, और 2028 तक 8.3% की CAGR से बढ़कर 3,450 अरब रुपये होने का अनुमान है।2024-25 तक, 1.55 लाख से अधिक पंजीकृत प्रकाशन हैं, जिनमें लगभग 14,500 समाचार पत्र और 1,40,000 पत्रिकाएँ शामिल हैं। देश में 936 टीवी चैनल हैं, जिनमें समाचार, मनोरंजन और फिल्में शामिल हैं। रेडियो में 1,478 सक्रिय स्टेशन हैं, जिनमें 591 ऑल इंडिया रेडियो (सरकारी, लगभग 470 FM स्टेशन), 388 निजी FM स्टेशन और 499 सामुदायिक रेडियो स्टेशन शामिल हैं।
डिजिटल प्लेटफॉर्म तेजी से बढ़े हैं, जिनमें 70 से अधिक OTT सेवाएँ और हजारों मीडिया वेबसाइटें हैं, जो 463 मिलियन ऑनलाइन समाचार उपभोक्ताओं को सेवा प्रदान करती हैं। भारत में सालाना लगभग 1,823 फिल्में विभिन्न भाषाओं में बनती हैं। 500 से अधिक पत्रकारिता शिक्षण संस्थान हैं, जो जनसंचार कार्यक्रम प्रदान करते हैं, और देश भर के विश्वविद्यालयों और संस्थानों से प्रतिवर्ष 25,000 से अधिक जनसंचार छात्र निकलते हैं।
कभी विचारों की क्रांति का दीपक रहा भारतीय मीडिया आज अपने ही धुएँ में घुट रहा है। जिस पेशे ने महात्मा गांधी जैसे लोगों को आवाज़ दी, सत्याग्रह के दिनों में देश के आत्मसम्मान को शब्द दिए, वही पेशा अब सत्ता और पूँजी के चरणों में नतमस्तक दिखता है। आज यह प्रश्न केवल पत्रकारिता के पेशे की नहीं, बल्कि उस नैतिक चेतना की है जिसे हमारे स्वतंत्रता संग्राम ने गढ़ा था — सच्चाई, साहस और जनहित की चेतना।
भारत में मीडिया का परिदृश्य बदल गया है। 2023 में जब यह 2,450 अरब रुपये के राजस्व तक पहुँचा, तो यह आर्थिक सफलता नहीं, बल्कि चरित्र की पराजय का आरंभ बना। इतने विस्तार के बावजूद कंटेंट का आकाश इतना सूना क्यों है? क्योंकि इस विस्तार के बीच पत्रकारिता की आत्मा सिकुड़ गई है।
कभी अख़बार समाज का आईना थे, अब वे विज्ञापन का होर्डिंग बन चुके हैं। न्यूज चैनल अब प्रश्न नहीं पूछते — वे प्रायोजित नारे दोहराते हैं। न्यूज़ रूम में बहस की जगह उन्माद है, और संपादक अब मूल्य-संरक्षक नहीं, बल्कि कॉरपोरेट नीति-निर्माता हैं। स्वतंत्रता संग्राम के दिनों में पत्रकारिता का उद्देश्य सत्ता को चुनौती देना था; आज उसका उद्देश्य सत्ता से ‘रिश्ता’ बनाए रखना है।
महात्मा गांधी, गणेश शंकर विद्यार्थी, बाल गंगाधर तिलक और माखनलाल चतुर्वेदी जैसे पत्रकारों ने “सच” को सत्ता से ऊपर रखा था। आज की पीढ़ी ‘ट्रेंडिंग’ को ‘सच’ और ‘हिट्स’ को ‘हक़ीक़त’ समझ बैठी है। पत्रकारिता संस्थानों में अब तकनीकी दक्षता तो है, पर ज़मीर की संवेदना गायब है। नैतिकता और नागरिक जिम्मेदारी पर चर्चा नहीं होती। परिणामस्वरूप, एक नई पत्रकारिता पीढ़ी तैयार हो रही है, जो कैमरे के आगे खड़ी तो है, पर सच्चाई के सामने आँखें मींचे हुए।
आज भारतीय मीडिया “लोकतंत्र का स्तंभ” नहीं, बल्कि सत्ता का सजावटी खंभा बन गया है। बड़े मीडिया घराने पूँजीपतियों की मुट्ठी में हैं, जहाँ हर संपादकीय निर्णय TRP और स्पॉन्सर के बीच तय होता है। न्यूज़ बुलेटिन शासन की प्रेस विज्ञप्ति बन गए हैं, और जांची-परखी खबरें अब “रील टाइम ओपिनियन” में खो गई हैं। पेड न्यूज़ और मीडिया ट्रायल ने पत्रकारिता को व्यापार में बदल दिया है।
लेकिन सबसे गहरी चोट उन मूल्यों पर लगी है जो भारतीय पत्रकारिता की आत्मा थे — संवेदनशीलता, निडरता और सत्यनिष्ठा। गांधीजी ने कहा था, “पत्रकारिता राष्ट्र की सेवा का साधन है।” आज वही पत्रकारिता राष्ट्र की चेतना से दूर होती जा रही है। सत्ता के इशारों पर झूमती बहसें और भय में मौन रहते पत्रकार उस समर्पण की याद दिलाते हैं जो कभी औपनिवेशिक सेंसरशिप के बावजूद नहीं टूटा था।
डिजिटल मीडिया ने भी शुरुआत में आशा जगाई थी — लेकिन आज वह भी झूठ, ट्रोलिंग और प्रोपेगेंडा की प्रयोगशाला बन गया है। सत्यापन के बजाय सनसनी की होड़ है। यूट्यूब और इंस्टाग्राम ने हर व्यक्ति को “पत्रकार” बना दिया, पर सत्य की कसौटी पर बहुत कम खरे उतरते हैं। मीडिया शिक्षा संस्थान छात्रों को स्टूडियो सिखाते हैं, पर “सत्य की कीमत” नहीं।
और इस पतन का सबसे भयावह पहलू है — “जनता का मौन भरोसा टूटना”। कभी अख़बार सुबह की पूजा जैसे पढ़े जाते थे, अब लोग उन्हें विज्ञापन-परिचय मानते हैं। टीवी बहसों की चीख़ में सच्चाई की आवाज़ डूब चुकी है। न्यूज़ प्लेटफ़ॉर्म्स पर व्यंग्य को “तथ्य” और अफ़वाह को “एंगल” बना दिया गया है।
फिर भी उम्मीद पूरी तरह मरी नहीं है। कुछ निडर युवा अब सोशल मीडिया, स्वतंत्र वेब प्लेटफ़ॉर्म और न्यूज़लेटर्स के ज़रिए असली पत्रकारिता को जीवित रखे हुए हैं। वे सत्ता से डरते नहीं, बल्कि सवाल करते हैं — वही तेवर, वही सच्चाई जिन्होंने किसी ज़माने में आज़ादी की लड़ाई को दिशा दी थी।
भारतीय मीडिया का आज का संकट केवल “संस्थानिक” नहीं, बल्कि “नैतिक” है। यह आत्मा का संकट है। जिस मीडिया ने कभी साम्राज्यवाद के सामने झुकना नहीं सीखा, वही आज पूँजी और सत्ता के आगे झुक गया है। स्वतंत्र पत्रकारिता के बिना लोकतंत्र अधूरा है — क्योंकि सच को अगर माइक्रोफोन से डरा दिया जाए, तो समाज की चेतना भी मौन हो जाती है।
मीडिया की यह चुप्पी केवल एक पेशे की नहीं, राष्ट्र की बीमारी है। अगर चौथा स्तंभ सड़ा, तो बाकी तीन स्तंभ भी नहीं टिकेंगे। आज ज़रूरत है उन मूल्यों को पुनर्जीवित करने की — जो गांधी, विद्यार्थी और तिलक ने हमें सौंपे थे। वही मूल्य जो बताते हैं, “पत्रकारिता केवल पेशा नहीं, एक जनधर्म है।”
वैसा लगता है कि हमारा मीडिया अब कभी समाचार नहीं, बल्कि सांझी मित्री बन गया है जो हर दिन बात करती है कि ट्रेंडिंग है, हिट्स हैं! आजकल कोई चुनौती देने वाला सच्चाई देखना मुश्किल है, जैसे 1,823 फिल्में प्रति वर्ष बनती हों, या 463 मिलियन ऑनलाइन समाचार देखों! सरकारी रेडियो बहुत सुनाता है, लेकिन कुछ सामुदायिक स्टेशनों की बातें बहुत कम बोली जाती हैं। शायद इसीलिए लोग सोचते हैं कि अख़बार में पहले विज्ञापन पढ़ते हैं, फिर खबर!deltarune prophecy panel generator