भटकाव या सामयिक बदलाव? मीडिया बदल रहा है, बाजारवाद के प्रमोशन के लिए आदर्शों का परित्याग

Dharmender Singh Malik
5 Min Read

ब्रज खंडेलवाल 

भारतीय मास मीडिया की वर्तमान स्थिति रोचक भी है और चिंताजनक भी। यह एक ऐसा समय है जब मीडिया अपने मौलिक लक्ष्यों से भटक गया है। मुख्यधारा का मीडिया पश्चिमी संस्कृति से पोषित और प्रेरित हो रहा है, जिससे यह आम भारतीयों से कटता जा रहा है। निम्न-गुणवत्ता, उपभोक्तावादी और अश्लील सामग्री का प्रचलन बढ़ता जा रहा है। आजादी की लड़ाई में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाला यह माध्यम अब नकारात्मकता और असंवेदनशीलता का प्रतीक बनता जा रहा है। लोकतंत्र के स्तंभों में से एक के रूप में, मीडिया की जिम्मेदारी केवल जानकारी प्रदान करना नहीं, बल्कि समाज के सकारात्मक निर्माण में योगदान देना भी है। हालांकि, वर्तमान में यह जिम्मेदारी छोड़ दी गई है और मीडिया व्यावसायिक हितों के जाल में फंस चुका है।

व्यवसायिक मोड़

इलेक्ट्रॉनिक और डिजिटल मीडिया ने आदर्शवादी मूल्यों की उपेक्षा करते हुए व्यावसायिक मोड़ ले लिया है। समाचार पत्रों के मामले में, व्यवसाय प्रबंधकों और विज्ञापन विभागों ने संपादकों को बेदखल कर दिया है, जिससे वैचारिक धार कुंद हुई है। पहले, अखबारों की पहचान उनके संपादकों से होती थी, जो रोल मॉडल भी होते थे। आज, अखबारों के संपादकों के नाम भी आम जनता को नहीं मालूम होते।

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दूरदर्शन के दिनों का समय बीत चुका है। आज भारतीय मीडिया बदल चुका है। चीखने-चिल्लाने वाले एंकर अब ब्रांड एंबेसडर बन चुके हैं। पक्षपाती रिपोर्टिंग अब नीति बन चुकी है। पुराने संस्कारों वाले पत्रकार अब लुप्त प्रजातियों की सूची में शामिल हो चुके हैं।

जिम्मेदारी की उपेक्षा

पुराने पत्रकारों का मानना है कि मीडिया को अपनी जिम्मेदारी समझनी चाहिए और हमेशा जनहित को प्राथमिकता देनी चाहिए। हाल ही में कई राज्य सरकारों ने अखबारों, विशेष रूप से सोशल मीडिया प्लेटफॉर्मों को उनकी भूमिकाओं में तटस्थता और निष्पक्षता सुनिश्चित करने की चेतावनी दी है।

इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि मीडिया की बढ़ती शक्ति और पहुंच के कारण, मास मीडिया ने कुछ अजीब, गैर-पारंपरिक भूमिकाएं निभानी शुरू कर दी हैं। सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर जिस तरह का कंटेंट परोसा जा रहा है, उससे हमले तेज हो गए हैं। पाठक अब सक्रिय रूप से भाग ले रहे हैं, लेकिन इसके खतरे भी बढ़ गए हैं।

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परिवर्तन की प्रक्रिया

भारतीय मीडिया भी परिवर्तन की प्रक्रिया से गुजर रहा है, और यह एक रोमांचक प्रक्रिया हो सकती है। हालांकि, पुरानी पीढ़ी इसे पत्रकारिता में गिरावट के रूप में देखती है। यह सच है कि हमारे विचार और प्राथमिकताएं बदल गई हैं। हमारा मीडिया अब लाभ कमाने वाली औद्योगिक गतिविधियों पर ध्यान केंद्रित कर रहा है।

1970 के दशक तक, प्रेस की भूमिका मुख्य रूप से विपक्षी थी। तब मीडिया केवल पूंजीपति वर्ग के हितों की ढाल नहीं था, बल्कि यह विपक्ष की भूमिका भी निभाता था। आज भी प्रेस सतर्कता के माध्यम से नागरिक समाज को मजबूत करता है और गलत कामों को उजागर करता है।

सामाजिक चिंताएँ

हाल के वर्षों में कुछ घटनाओं ने हमें हिलाकर रख दिया है। टेलीविजन माध्यम ने गंभीर मानवीय परिस्थितियों की परवाह किए बिना टीआरपी लाभों के लिए अपने रास्ते से भटकने का उदाहरण प्रस्तुत किया है। विभिन्न घटनाएं, जैसे आत्मदाह की घटनाएं, इस दिशा में बढ़ते मीडिया की असंवेदनशीलता को दर्शाती हैं।

यदि मीडिया का एक बड़ा हिस्सा वैश्विक पूंजीवाद द्वारा समर्थित वाणिज्यिक संस्कृति के साथ अनुबंध करता है, तो मीडिया और जनता के बीच संबंधों में गिरावट आएगी। यह चिंता का विषय है कि व्यावसायिक गतिविधियों की बढ़ती भूमिका ने पत्रकारिता को लोगों की आवाज बनने के अपने प्राथमिक लक्ष्य से दूर कर दिया है।

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इस प्रकार, हम एक ऐसे मोड़ पर खड़े हैं जहां हमें यह सोचना होगा कि यह भटकाव है या सामयिक बदलाव। इस सवाल का उत्तर समाज के हर वर्ग के लिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि मीडिया का भविष्य हमारे लोकतंत्र और समाज के स्वास्थ्य के लिए अत्यंत आवश्यक है।

लेखक के बारे में

ब्रज खंडेलवाल ने 1972 में इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ मास कम्युनिकेशन से पढ़ाई की और पचास वर्षों तक मीडिया में कार्य किया। साथ ही, उन्होंने आगरा विश्वविद्यालय, केंद्रीय हिंदी संस्थान और इंदिरा गांधी ओपन यूनिवर्सिटी के जन संचार विभागों में तीन दशकों तक फैकल्टी के रूप में सेवाएं दीं।

 

 

 

 

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Editor in Chief of Agra Bharat Hindi Dainik Newspaper
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