हाय बुढ़ापा!!! ढलता सूरज और बढ़ती तन्हाई

Dharmender Singh Malik
6 Min Read

बृज खंडेलवाल

सीने में जलन, आँखों में तूफ़ान सा क्यों है,
इस शहर में हर शख़्स परेशान सा क्यों है।”
— बशीर बद्र

एक समय था जब घर की रौशनी माँ-बाप की मुस्कान में दिखती थी, जब उनका होना ही बरकत की निशानी माना जाता था। आज वही बुजुर्ग, जिनकी दुवाओं में कभी परिवार की सलामती बसती थी, जिंदगी के ढलते आलम में अकेले, उपेक्षित और परेशान हैं। उनकी आँखों में छाया अंधेरा न सिर्फ उम्र का, बल्कि अपनों की बेरुख़ी का नतीजा है — रिश्तों के इसी जंगल में कई बुजुर्ग अपने ही घर में बेघर हैं।

बूढ़े माँ-बाप की आँखों में कभी घर का उजाला बसता था, आज वही आँखें अंधेरों में डूबी हैं। सड़क किनारे उपेक्षित, भीड़ के बीच अकेले, और रिश्तों के जंगल में बेघर—भारत के करोड़ों सीनियर सिटीज़ंस अपनी साँसों से ज्यादा अपने अकेलेपन से जूझ रहे हैं। यह एक खामोश त्रासदी है, जहाँ उम्र का बोझ नहीं, बल्कि अपनों की बेरुख़ी हड्डियों से ज़्यादा दर्द देती है।

भारत में सीनियर सिटीजन्स की हालत हर दिन चिन्ताजनक होती जा रही है। मुंबई की मिसाल लें — एक वृद्धा को अपनी बहू की बेरुख़ी और ज़ुल्म का सामना करना पड़ा, यहाँ तक कि उसे खाने के लिए भी भीख मांगनी पड़ी। बहू ने पोते से दादी से मिलने-जुलने तक पर पाबंदी लगा दी। जब घर की गर्माहट इस तरह छिन जाती है, तो दिल पर ऐसा बोझ पड़ता है जिसे लफ़्ज़ों में बयान करना मुश्किल है। “उम्र भर यूँ ही ग़लती करते रहे, गर्दिशों में चाँद की उलझे रहे, और नसीब पूछता रह गया — ‘कहाँ हो?’”

See also  प्लास्टिक से जकड़ा भारत: मंदिरों से समुद्रतट तक गहराता संकट

दिल्ली की एक और कहानी भी दर्दनाक है। 70 वर्षीय विधुर से उनके अपने ही बच्चों ने सब कुछ लिखवा लिया, फिर तन्हा छोड़ दिया। एक दिन की रोटी के लिए दान पर रहना पड़ा। यही हकीकत उत्तर प्रदेश के छोटे गांवों में रोज़ लिखी जाती है — एक वृद्ध को उसके ही भतीजे ने संपत्ति विवाद में पीटा और घर से निकाल दिया। पुलिस ने कह दिया, “पारिवारिक मामला है, हमारा वक्त ज़ाया मत करो।”

बंगलौर की एक 68 वर्षीय महिला, अपने ही बेटे-बहू के रहमोकरम पर थी, मगर वहाँ भी तिरस्कार मिला। समाज से, अपने बच्चों से, अपने आपसे। हर रिश्ते में सुराख—और हर लम्हे में सज़ा।

ओडिशा की 72 वर्षीय विधवा, जिसकी देखभाल करने वाला कोई नहीं। उसकी झोपड़ी में पानी टपकता है, फटे कपड़ों में ठंड से काँपती वह, सरकार की मामूली पेंशन के सहारे जी रही है। आस-पड़ोस के लोग भी उसे कूड़े जैसी तुच्छ समझते हैं।
इन किस्सों में सामाजिक सच्चाई झलकती है।दिन-प्रतिदिन बढ़ती बुजुर्गों की दुश्वारियाँ न सिर्फ पारिवारिक, बल्कि सिस्टम की नाकामी भी उजागर करती हैं। परिवार वाले करियर, लाभ या ego के लिए बड़ों की देखभाल नहीं करते हैं। संयुक्त परिवार की नींव डगमगा गयी है—अब बुजुर्ग दवा, देखरेख, या सहारे के लिए तरस रहे हैं, जिनके अपने खुद के बच्चे विदेशी नौकरी या शहर के ऊँचे डीलक्स फ़्लैट्स में कैद हैं।

See also  रतन टाटा की अधूरी प्रेम कहानी और 1962 का युद्ध: एक दिलचस्प किस्सा

सरकार ने बुजुर्गों के लिए इंदिरा गांधी राष्ट्रीय वृद्धावस्था पेंशन योजना (IGNOAPS) जैसी कुछ योजनाएँ शुरू की हैं, मगर केवल 200-500 रुपये प्रतिमाह मिलते हैं, जो वर्तमान खर्च के आगे ऊँट के मुँह में जीरा है। प्रधानमंत्री वय वंदना योजना जैसी स्कीम्स केवल बैठे-ठाले रिटायर्ड लोगों के लिये लाभदायक हैं, जबकि 90% श्रमिक असंगठित क्षेत्र में पेंशनविहीन सेवानिवृत्त होते हैं। मिलाजुलाकर तसव्वुर यही आता है—
“‘अपनों के मकानों में बड़े जिल्लत से रहते हैं,
हम वो वृद्ध हैं जो सरकार की नज़रों में बस आंकड़े हैं।’”
2025 में भारत में 60 वर्ष या उससे अधिक उम्र के करीब 15.87 करोड़ लोग हैं—जो अब कुल आबादी का 11% हैं। 2050 तक यह संख्या दोगुनी होकर 32-34.7 करोड़ पहुँच सकती है। यह demographic परिवर्तन नये सामाजिक-अर्थिक संकट लेकर आ सकता है, अगर अभी ध्यान नहीं दिया गया।

अब जरूरी है कि सरकार एक समग्र, मजबूत पैकेज लेकर आएः – बुजुर्गों के लिए इनकम टैक्स से छूट – हर बड़े शहर में जेरियाट्रिक केयर सेंटर खोलना, – मुफ़्त सार्वजनिक परिवहन और सभी जिलों में आधुनिक वृद्धाश्रम, जिसमें मेडिकल, मनोरंजन और राहत सेवा हो, – पंचायत स्तर तक जागरूकता अभियान चलाना, – गाँव-कस्बों में पेंशन वितरण की पारदर्शिता सुनिश्चित करना।

See also  आगरा की पहचान पे नक़लीपन का साया, कहां गया वो हुनरमंदों का ज़माना?

समाज की जिम्मेदारी बनती है कि वह बुजुर्गों को इज्जत, प्यार और सुरक्षा दे— अब वक्त है कि सरकार और समाज मिलकर बुजुर्गों को तन्हा अंधेरे से निकालें, उनकी twilight years को वाक़ई इज़्ज़त और तसल्ली के साथ जीने लायक बनाएं। वरना यह ढलता सूरज हमेशा के लिए अस्त हो जाएगा, और मानवता के दामन पर एक और स्याह निशान छूट जाएगा।

भारत अपने बुजुर्गों को—जो इसकी प्रगति के शिल्पकार हैं—नजरअंदाज नहीं कर सकता। त्वरित हस्तक्षेप के बिना, अंतिम वर्ष निराशा का दौर बने रहेंगे, न कि चिंतन का। अब समय है कि समाज और सरकार अपने कर्ज को सम्मान दें, यह सुनिश्चित करते हुए कि इस जनसांख्यिकीय लहर में कोई बुजुर्ग पीछे न छूटे।

See also  रतन टाटा की अधूरी प्रेम कहानी और 1962 का युद्ध: एक दिलचस्प किस्सा
Share This Article
Editor in Chief of Agra Bharat Hindi Dainik Newspaper
Leave a Comment

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Advertisement