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पहलगाम हमला: सिर्फ़ शोक नहीं, अब हक़ीक़त का सामना ज़रूरी है; वो गोली बम चलाते हैं, हम भाषणबाजी करते हैं- वो पत्थर बाजी करते हैं, हम नारेबाजी

Dharmender Singh Malik
7 Min Read
पहलगाम हमला: सिर्फ़ शोक नहीं, अब हक़ीक़त का सामना ज़रूरी है; वो गोली बम चलाते हैं, हम भाषणबाजी करते हैं- वो पत्थर बाजी करते हैं, हम नारेबाजी

बृज खंडेलवाल

पहलगाम में हुआ आतंकी हमला, पहले की तरह इस बार भी हमारे समाज और सिस्टम की एक जानी-पहचानी, खोखली प्रतिक्रिया को सामने ले आया। मोमबत्तियाँ जलाना, शोक सभाएं, प्रेस बयान, मानव श्रृंखलाएं, और झंडा जलाने जैसे प्रदर्शन – ये सब अब एक रस्म बन चुकी हैं। मगर सवाल ये है कि क्या ये इज़हार-ए-ग़म एक मज़बूत और समझदार मुल्क की निशानी हैं?

ये तमाम कार्रवाइयाँ सिर्फ़ सतही जज़्बाती इशारे बनकर रह गई हैं। ना ये दहशतगर्दी की जड़ों को छू पाती हैं, ना ही ‘हक़’, ‘इंसाफ़’ और संवैधानिक उसूलों’ में अवाम का भरोसा बहाल कर पाती हैं। मुल्क की ताक़त भाषणों की गूंज या मोमबत्तियों की रौशनी से नहीं, बल्कि ज़मीनी स्तर पर लिए गए क़दमों से नापी जाती है—ऐसे क़दम जो खुदमुख्तारी की हिफाज़त करें और हर शहरी को अमन का यक़ीन दें।
सिविल सोसाइटी का रवैया भी अब एक नक़ली एक्टिविज़्म (activism) का मज़ाक बनकर रह गया है—जहाँ जलती मोमबत्तियाँ, भावुक बयान और पुलिस प्रोटेक्शन में दिए गए जोशीले भाषण हकीक़त से दूर हैं। ये सब मीडिया की सुर्खियों तक तो पहुंचते हैं, मगर आतंक फैलाने वालों पर असर नहीं डालते।

जब समाज का एक तबका 1947 के विभाजन की तल्ख़ियों को दिल में दबाए, नफ़रत पालता है और जम्हूरी निज़ाम को उखाड़ने की फ़िक्र में लगा हो, तब “सबका साथ, सबका विकास” जैसे नारे बेमानी लगने लगते हैं। बहुसंख्यक समाज एक तरह के वोटबैंक वाले दबाव में चुप करा दिया जाता है—ना सवाल पूछ सकता है, ना जवाब मांग सकता है। ये मज़बूत लोकतंत्र नहीं, बल्कि एक नाकाम सिस्टम की निशानी है।
हमारा तवज्जो सिर्फ़ निशानियों और प्रतीकों पर रह गया है—संविधान को एक होली बुक की तरह पूजना, जैसे उसमें कोई बदलाव मुमकिन ही न हो। मगर सच्चाई ये है कि संविधान कोई पवित्र किताब नहीं, बल्कि एक क़ानूनी दस्तावेज़ है जिसे वक़्त के साथ बदलना देश के हित में ज़रूरी हो जाता है। लेकिन जैसे ही संशोधन की बात होती है, एक किस्म का ग़ुस्सा और अफ़रातफ़री फैल जाती है—जैसे संविधान पर सवाल उठाना ही गुनाह हो।

इसी तरह अदालतों को भी हर तरह की आलोचना से ऊपर नहीं रखा जा सकता। जज कोई होली 🐄 गाय नहीं हैं कि उनसे ग़लती नहीं हो सकती। जब आतंकवाद बार-बार लौटता है और क़ानूनी प्रक्रिया इंसाफ़ देने में सुस्त या बेअसर दिखती है, तो अवाम का भरोसा भी डगमगाता है। वातानुकूलित सभागारों से पारित निंदा प्रस्ताव या अदालतों की तारीख़ों पर तारीख़ें आतंकवादियों को रोकने के बजाय उन्हें और निडर बनाती हैं। अब अमेरिका से निष्काशित तहब्बुर राणा, दुर्दांत आतंकवादी, वर्षों तक कानूनी मेहमान बना रहेगा।

एक पुख़्ता और समझदार देश आतंक से निपटने के लिए जज़्बात नहीं, अमल करता है—जासूसी तंत्र को मज़बूत बनाता है, सरहदों की हिफ़ाज़त करता है, और दोषियों को सख़्त सज़ा दिलाता है। साथ ही, वो अपनी नीतियों—चाहे वे संविधान से जुड़ी हों या न्यायपालिका से—की नए सिरे से समीक्षा करता है ताकि मुल्क की हिफ़ाज़त जज़्बातों से नहीं, हक़ीक़त से हो। अतीत के पन्नों में झांकें तो ज्ञात होता है कि हमारा कलेक्टिव रिस्पांस घिसा पिटा, रस्मी औपचारिकता ही रहा है।

आतंकवादियों के हौसले बुलंद होने के पीछे कमजोर जवाबी कार्यवाही के कई उदाहरण इतिहास में देखे जा सकते हैं। नीचे कुछ प्रमुख उदाहरण और कारण जोड़े गए हैं, जो इस समस्या को रेखांकित करते हैं:

मुंबई हमला (26/11, 2008):घटना: लश्कर-ए-तैयबा के आतंकवादियों ने मुंबई में ताज होटल, ओबेरॉय ट्राइडेंट, छत्रपति शिवाजी टर्मिनस और अन्य स्थानों पर हमला किया, जिसमें 166 लोग मारे गए।

कमजोर जवाबी कार्यवाही: हमले के बाद भारत ने पाकिस्तान पर कूटनीतिक दबाव डाला, लेकिन ठोस सैन्य या प्रत्यक्ष कार्रवाई नहीं की गई। मुख्य साजिशकर्ता हाफिज सईद पाकिस्तान में खुलेआम घूमता रहा और उसे सजा नहीं मिली।
पठानकोट वायुसेना अड्डा हमला (2016): जैश-ए-मोहम्मद के आतंकवादियों ने पठानकोट वायुसेना अड्डे पर हमला किया, जिसमें 7 सुरक्षाकर्मी शहीद हुए।

कमजोर जवाबी कार्यवाही: भारत ने सबूत पाकिस्तान को सौंपे, लेकिन पाकिस्तान ने जांच में कोई ठोस कदम नहीं उठाया। हमले का मास्टरमाइंड मसूद अजहर आज भी आजाद है। कश्मीर में लगातार हमले (1990 से अब तक): जम्मू-कश्मीर में आतंकवादी संगठनों जैसे हिजबुल मुजाहिदीन और लश्कर-ए-तैयबा द्वारा सुरक्षाबलों और नागरिकों पर लगातार हमले। कई मामलों में, आतंकवादियों के खिलाफ स्थानीय स्तर पर कार्रवाई हुई, लेकिन उनके विदेशी आकाओं या प्रायोजकों (जैसे पाकिस्तान में बैठे आतंकी सरगना) के खिलाफ निर्णायक कदम नहीं उठाए गए। कूटनीतिक बातचीत और सबूत साझा करने तक सीमित रहना आम बात रही।

कूटनीतिक दबाव की सीमाएं: कई बार देश केवल बयानबाजी और कूटनीतिक शिकायतों तक सीमित रहते हैं, जो आतंकवादियों को रोकने में अप्रभावी साबित होता है।

आर्थिक और राजनीतिक मजबूरियां: आतंकवाद प्रायोजक देशों पर आर्थिक प्रतिबंध या सैन्य कार्रवाई में बड़े पैमाने पर जोखिम होता है, जिसके कारण कठोर कदम नहीं उठाए जाते।

खुफिया तंत्र की कमी: कई मामलों में, हमलों से पहले खुफिया जानकारी का अभाव या उस पर त्वरित कार्रवाई न होना आतंकवादियों को फायदा देता है।

अंतरराष्ट्रीय सहयोग की कमी: आतंकवाद के खिलाफ वैश्विक स्तर पर एकजुटता की कमी के कारण आतंकी संगठन सुरक्षित पनाहगाहों में फलते-फूलते हैं।

कमजोर जवाबी कार्यवाही, चाहे वह कूटनीतिक निष्क्रियता हो, निर्णायक सैन्य कार्रवाई का अभाव हो, या आतंकवादियों को रियायतें देना हो, आतंकवादियों के हौसले को बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। इसके विपरीत, 2016 का सर्जिकल स्ट्राइक और 2019 का बालाकोट एयरस्ट्राइक जैसे कदमों ने आतंकवादियों को यह संदेश दिया कि भारत अब पहले की तरह निष्क्रिय नहीं रहेगा।

जाहिर है, भारत को अब शोक की रस्मों से बाहर निकलकर जमीनी क़दम उठाने होंगे। वर्ना, हर शहीद की कुर्बानी का मतलब खो जाएगा, और हम केवल मोमबत्तियों में अपने जमीर की राख ढूंढते रह जाएंगे।

 

 

 

 

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Editor in Chief of Agra Bharat Hindi Dainik Newspaper
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