प्रेस स्वतंत्रता दिवस 2025: भारत के पीआर-प्रभावित मीडिया में कराहती पत्रकारिता

Dharmender Singh Malik
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प्रेस स्वतंत्रता दिवस 2025: भारत के पीआर-प्रभावित मीडिया में कराहती पत्रकारिता

बृज खंडेलवाल 

कभी लोकतंत्र का सशक्त चौथा स्तंभ कहलाने वाली पत्रकारिता, आज जनसंपर्क (पीआर) के शोरगुल, कॉर्पोरेट संदेशों की मिलावट और झूठी खबरों के दलदल में हांफ रही है। यह क्षरण उस स्थानीय पत्रकारिता में और भी गहरा है, जहाँ गाँवों की अनकही पीड़ा, पर्यावरण की चीख और हाशिए पर धकेले गए समुदायों की आवाजें स्पष्ट और संवेदनशील रूप से गूंजनी चाहिए थीं। विडंबना यह है कि अब इन आवाजों को पीआर एजेंसियों द्वारा तैयार किए गए चिकने प्रेस विज्ञप्तियों, व्हाट्सएप के बेतरतीब फॉरवर्ड और सत्ताधारी नेताओं या व्यावसायिक घरानों के सुनियोजित बयानों ने दबा दिया है,” यह कहना है सामाजिक विश्लेषक प्रो. पारस नाथ चौधरी का।

सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज़ की हालिया रिपोर्ट एक चिंताजनक तस्वीर पेश करती है। भारत के 80% से अधिक छोटे शहरों के अखबार और न्यूज़ चैनल बासी और पूर्वनिर्मित प्रेस विज्ञप्तियों पर पल रहे हैं। घटती आय, कर्मचारियों की कमी और राजनीतिक दबाव के त्रिकोणीय जाल में फंसे संपादकों के लिए वास्तविक, खोजी पत्रकारिता एक दूर की कौड़ी बन गई है। इसका नतीजा? हर खबर एक ही साँचे में ढली हुई लगती है—आगरा में एक स्कूल का औपचारिक उद्घाटन, इंदौर में एक सतही स्वच्छता अभियान, या गया में आयोजित एक खानापूर्ति मेडिकल कैंप… सभी एक ही नीरस शैली में प्रस्तुत, जिनमें न स्थानीय मिट्टी की सोंधी महक है, न किसी सच्ची आवाज की गूंज। आलम यह है कि अखबार सरकारी विभागों—रेलवे, रक्षा, पुलिस—से आने वाली विज्ञप्तियों और बयानों को बिना किसी पड़ताल के जस का तस छाप देते हैं।
सेवानिवृत्त मीडियाकर्मी टी. जोशी इस एकरूपता को पत्रकारिता के मूल उद्देश्य पर कुठाराघात मानते हैं। उनके अनुसार, “पत्रकारिता का काम तो सत्ता पर पैनी नजर रखना और विविध वास्तविकताओं को सामने लाना है, न कि सरकारी भोंपू बनना।”

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हालात और भी बदतर तब हो जाते हैं जब अनैतिक हथकंडे अपनाए जाते हैं। पत्रकार—विशेषकर स्वतंत्र पत्रकार और स्ट्रिंगर—पैसे से भरे ‘लिफाफे’, मुफ्त यात्राओं के प्रलोभन या चुनावी मौसम में मिलने वाले उपहारों के बदले सकारात्मक खबरें छापने के दबाव में घुटते हैं। उत्तर प्रदेश के कई पत्रकारों ने दबी जुबान से स्वीकार किया है कि स्थानीय नेताओं से ‘सुविधा शुल्क’ लेना अब एक अलिखित नियम बन गया है। एक पूर्व मुख्यमंत्री का किस्सा तो जगजाहिर है, जिन्होंने पत्रकारों को पॉश कॉलोनियों में मुफ्त प्लॉट और जमीनें तक बाँट दी थीं!

इस दूषित परिदृश्य में फेक न्यूज़ का खतरनाक उभार एक और गंभीर चुनौती है। भारत अब उन देशों की दुर्भाग्यपूर्ण सूची में शामिल हो गया है जहाँ चुनावों के दौरान झूठी खबरें सबसे तेजी से फैलती हैं। डीपफेक वीडियो, मनगढ़ंत आँकड़े और सांप्रदायिक विद्वेष फैलाने वाले कंटेंट सोशल मीडिया पर बाढ़ की तरह उमड़ पड़ते हैं—जिनका स्रोत अक्सर राजनीतिक दलों के आईटी सेल या कट्टर विचारधारा वाले समूह होते हैं, यह कहना है पूर्व पत्रकारिता श्री जोशी बी का।

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फैक्ट-चेकिंग प्लेटफॉर्म ‘ऑल्ट न्यूज़’ के 2024 के आँकड़े भयावह हैं। उन्होंने पिछले वर्ष की तुलना में 40% अधिक झूठी खबरें दर्ज कीं—जिनमें से अधिकांश टीआरपी की अंधी दौड़ में शामिल मुख्यधारा के मीडिया द्वारा फैलाई गईं।
वरिष्ठ पत्रकार इस जहरीले मिश्रण—पीआर का प्रभाव, फेक न्यूज़ का प्रसार और पेड मीडिया का चलन—को लोकतंत्र के लिए घातक मानते हैं। पाठक, खासकर युवा पीढ़ी, अब मुख्यधारा के मीडिया पर अपना विश्वास खो रहे हैं। 2023 के एक सर्वेक्षण में मात्र 36% भारतीयों ने खबरों पर यकीन जताया। यह अविश्वास एक ऐसा शून्य पैदा कर रहा है, जिसे अक्सर अपुष्ट और अविश्वसनीय वैकल्पिक स्रोत तेजी से भर रहे हैं।

यह विश्वासघात अंततः लोकतंत्र की नींव को कमजोर करता है। एक स्वतंत्र मीडिया न केवल समाज का दर्पण होता है, बल्कि उसकी अंतरात्मा भी होता है। जब मीडिया सत्ता से सवाल करने में हिचकिचाता है, असहज सच्चाइयों को दबाता है या गुमनाम आवाजों को अनसुना कर देता है, तो वह अपने लोकतांत्रिक दायित्व से मुँह मोड़ लेता है।
बिहार के शिक्षाविद् टीपी श्रीवास्तव के अनुसार, “भारत जैसे देश में, जहाँ चुनाव अक्सर विकास के वास्तविक प्रदर्शन से नहीं, बल्कि सुनियोजित छवि-निर्माण से जीते जाते हैं, एक बिका हुआ मीडिया सत्ता पर अंकुश लगाने के बजाय प्रोपेगंडा का एक शक्तिशाली हथियार बन जाता है।”

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तो फिर उपाय क्या है? सबसे पहला कदम यह है कि मीडिया घरानों को जमीनी स्तर की रिपोर्टिंग में फिर से निवेश करना होगा। नागरिक पत्रकारों, स्थानीय संवाददाताओं और विशिष्ट मुद्दों पर केंद्रित खोजी टीमों को प्रोत्साहित करना होगा। पत्रकारिता संस्थानों को किकबैक की संस्कृति पर नहीं, बल्कि नैतिकता और फील्ड रिपोर्टिंग पर जोर देना चाहिए। सरकार को मीडिया फंडिंग में पारदर्शिता लानी होगी और पेड न्यूज़ पर कठोर कार्रवाई करनी होगी—जिस पर प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया बार-बार अपनी चिंता जता चुका है, लेकिन ठोस कार्रवाई अभी भी दूर है।

इस प्रेस स्वतंत्रता दिवस पर, आइए हम केवल पत्रकारिता के पतन पर शोक न मनाएं, बल्कि इसके पुनरुत्थान की पुरजोर मांग करें—एक ऐसी पत्रकारिता जो ईमानदारी की नींव पर टिकी हो, सच्चाई के मार्ग पर चले और लोकतंत्र के प्रति अटूट रूप से समर्पित हो।

 

 

 

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Editor in Chief of Agra Bharat Hindi Dainik Newspaper
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