बृज खंडेलवाल
सिर्फ शराब (spirits) ही नहीं, आध्यात्म (spirituality) भी बहुत बड़ा पैसा बनाने वाला उद्योग व्यवसाय बन चुका है! यूपी में योगी सरकार वृंदावन धाम का आधुनिकीकरण करके और समूचे ब्रज मंडल में हैवी इन्वेस्टमेंट के जरिए, भारत की धार्मिक इंडस्ट्री को नई बुलंदियों तक ले जाना चाहती है। 2001 के बाद धार्मिकता और पर्यटन एक दूसरे के पूरक बन गए हैं। मौज मस्ती के साथ अध्यात्म का तड़का, अर्थ व्यवस्था का नया इंजन ऑफ ग्रोथ है। उत्तराखंड जैसे छोटे राज्यों की विकास यात्रा धार्मिक टूरिज्म के कंधों पर टिकी है।
आजादी के बाद जितनी संख्या में धार्मिक स्थल बढे हैं, उतने इंडस्ट्रियल क्लस्टर्स या टाउनशिप्स नहीं विकसित हुए हैं।
जैसे ही गोरे लोगों की भीड़ आध्यात्मिक सुख या निर्वाण की तलाश में ऋषिकेश, काशी या मैसूर की तरफ रुख करती है, देश की तिजोरी नरम ताकत (soft power) के बदले में सोने-चांदी से भर जाती है। दशकों से, योग गुरुओं, कथा वाचकों, प्रवचनकारों और धार्मिक तीर्थस्थलों के लगातार बढ़ते नेटवर्क से बना भारत का आध्यात्मिक उद्योग, एक लाख करोड़ रुपये की समानांतर अर्थव्यवस्था बन चुका है जो लाखों लोगों को रोज़गार देता है।
हिमालय की मौन शांति से लेकर कुंभ मेले की हलचल या विद्युत्-जैसी भीड़ तक, भारत में ईमान सिर्फ रूह का मामला नहीं है; यह एक अरबों डॉलर का उद्यम है जो रोज़ी-रोटी चलाता है, इंफ्रास्ट्रक्चर बनाता है और टिकाऊ, समुदाय-आधारित विकास को गति देता है।
आंकड़े किसी चमत्कार से कम नहीं हैं। भारत की धार्मिक और आध्यात्मिक मार्केट की कीमत 2024 में जबरदस्त 65 अरब डॉलर आंकी गई थी और 2033 तक यह दोगुनी से भी ज़्यादा बढ़कर 135.1 अरब डॉलर के हैरतअंगेज आंकड़े को छूने का अनुमान है। समझने के लिए, सिर्फ एक प्रयागराज कुंभ मेले ने ही कई लाख करोड़ रुपये का आर्थिक प्रभाव पैदा किया, जो बड़े अंतरराष्ट्रीय खेल आयोजनों और एक्स्पो की बराबरी करता है।
पर्यावरणविद डॉ देवाशीष भट्टाचार्य के मुताबिक, यह आध्यात्मिक अर्थव्यवस्था मंदिर के दान से कहीं आगे की जटिल जाल है। यह टियर-2 और टियर-3 शहरों की जान है। हर साल, लाखों तीर्थयात्री, देशी और विदेशी, तिरुपति, वैष्णो देवी, गोल्डन टेंपल और अजमेर शरीफ जैसे पवित्र स्थानों की यात्रा करते हैं। वे एक विशाल इकोसिस्टम को जिंदा रखते हैं: होटल वाले, ट्रांसपोर्ट वाले, स्थानीय गाइड, फूल बेचने वाले, मूर्तियां और अगरबत्ती बनाने वाले कारीगर, और खाने के ठेले वाले।
दान दक्षिण से बड़े मंदिर अपने आप में आर्थिक शक्ति बन चुके हैं। तिरुपति मंदिर, श्री नाथ द्वारा, बांके बिहारी मंदिर, खाटू श्याम जी, देश के हर हिस्से में अनगिनत मंदिर, लाखों लोगों को तरह तरह के जॉब्स देते हैं और स्थानीय अर्थ व्यवस्था को मजबूती देते हैं।
कुल मिलाकर, अनुमान है कि सिर्फ ‘मंदिर अर्थव्यवस्था’ भारत की GDP में बड़ा योगदान देती है और हैरतअंगेज 8 करोड़ नौकरियों को सहारा देती है। एक सर्वे के मुताबिक, एक छोटा सा मंदिर भी पुजारी से लेकर सजावट करने वाले और वेंडर तक कम से कम 25 लोगों की रोज़ी-रोटी का ज़रिया है।
यह उद्योग अतीत में अटका हुआ नहीं है; यह तेज़ी से डिजिटल हो रहा है। ध्यान (मेडिटेशन), ज्योतिष और ऑनलाइन पूजा सेवाओं के ऐप्स के उदय से एक नई कमाई का रास्ता बना है, जिसमें ऑनलाइन बिक्री अब मार्केट की 18% है। ब्लिंकिट टाइप क्विक-कॉमर्स प्लेटफॉर्म पूजा का सामान घर तक पहुंचाते हैं, और डिजिटल दान अब आम बात होती जा रही है।
मैसूर की सोशल एक्टिविस्ट मुक्ता गुप्ता कहती हैं, “दुनिया भर में, वेलनेस और आध्यात्मिकता अरबों डॉलर के उद्योग हैं, और भारत इसका प्राकृतिक ब्रांड लीडर है। योग और आयुर्वेद जैसी प्रथाएं, जो इसकी आध्यात्मिक विरासत से जुड़ी हुई हैं, विदेशियों को आकर्षित करती हैं जो औसत पर्यटक से कहीं ज़्यादा पैसा खर्च करते हैं। रणनीतिक नीति समर्थन से, बारीकी से विकसित तीर्थ मार्ग—जैसे रामायण ट्रेल, बुद्धिस्ट सर्किट, और सूफी ट्रेल—भारत को स्पष्ट रूप से “दुनिया की आध्यात्मिक राजधानी” के तौर पर स्थापित कर सकते हैं।”
इस सेक्टर की कीमत सख्त मुद्रा (hard currency) से कहीं आगे है। यह नरम ताकत (soft power) का एक बहुत बड़ा स्रोत है, जो वैदिक मंत्र, शास्त्रीय संगीत, और माइंडफुलनेस प्रथाओं के ज़रिए भारतीय संस्कृति, दर्शन और विरासत का निर्यात करता है। यह मानसिक स्वास्थ्य, समुदायिक सद्भाव को बढ़ावा देता है और प्राचीन परंपराओं को संजोकर रखता है जो देश की पहचान की बुनियाद हैं।
सरकारी पहलें, जैसे PRASAD (Pilgrimage Rejuvenation and Spiritual Augmentation Drive) योजना, सही दिशा में उठाए गए कदम हैं, जिनका उद्देश्य तीर्थस्थलों पर बुनियादी ढांचे, पहुँच-योग्यता और समग्र अनुभव को बेहतर बनाना है। काशी विश्वनाथ धाम कॉरिडोर का विकास इस बात का उत्तम उदाहरण है कि आध्यात्मिक ढांचे में निवेश कैसे एक पूरे शहर की अर्थव्यवस्था को पुनर्जीवित कर सकता है।
बहुत लंबे समय तक धर्म को मुख्यतः राजनीति और समाजशास्त्र के नजरिये से देखा जाता रहा है। अब समय आ गया है कि इसे उसके वास्तविक स्वरूप में भी पहचाना जाए—एक मजबूत आर्थिक इंजन के रूप में, कहते हैं पब्लिक कॉमेंटेटर प्रोफेसर पारस नाथ चौधरी।