पचास साल पहले हुई थी कच्चातिवु टापू के विवादित हस्तांतरण की कोशिश, लेकिन अब क्यों चुप है सरकार?

Dharmender Singh Malik
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आगरा: कच्चातिवु टापू के श्रीलंका को हस्तांतरण का विवाद आज भी भारत में एक संवेदनशील और महत्वपूर्ण मुद्दा बना हुआ है। यह मामला 1974 में हुआ था जब भारतीय सरकार ने बिना संसद की मंजूरी के इस द्वीप को श्रीलंका को सौंप दिया। हालांकि, इस विवाद को हाल ही में चुनावों के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने फिर से तूल दिया था, लेकिन अब जब चुनाव खत्म हो चुके हैं, तो प्रधानमंत्री इस मुद्दे पर चुप्पी साधे हुए हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि सरकार इस महत्वपूर्ण मुद्दे पर अब क्यों खामोश है?

1974 का कच्चातिवु टापू का विवाद

कच्चातिवु टापू का हस्तांतरण भारत की संप्रभुता और संविधान का उल्लंघन था। यह द्वीप भारतीय क्षेत्रीय जल का हिस्सा था और इसकी रणनीतिक और रक्षा दृष्टि से अत्यधिक अहमियत थी। 1974 में हुए इस हस्तांतरण को लेकर पत्रकार ब्रिज खंडेलवाल ने दिल्ली हाई कोर्ट में याचिका दायर की थी, जिसमें उन्होंने इस संधि को असंवैधानिक बताते हुए इसे रोकने की मांग की थी। लेकिन आपातकाल के दौरान इस याचिका को खारिज कर दिया गया था, और कच्चातिवु श्रीलंका को सौंप दिया गया था।

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प्रधानमंत्री मोदी का चुनावी वादा और अब की खामोशी

कभी कच्चातिवु टापू का मुद्दा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तमिलनाडु चुनाव प्रचार के दौरान जोर-शोर से उठाया था। उन्होंने इस फैसले की तीव्र निंदा की थी और इसे भारतीय संप्रभुता के खिलाफ बताया था। प्रधानमंत्री मोदी ने इसे तमिलनाडु के मतदाताओं को भाजपा से जोड़ने के लिए एक बड़ा मुद्दा बनाया था। लेकिन अब चुनाव खत्म हो चुके हैं और प्रधानमंत्री इस मुद्दे पर पूरी तरह चुप्पी साधे हुए हैं। यह स्थिति काफी चौंकाने वाली है, क्योंकि यह मुद्दा न केवल भारतीय संप्रभुता से जुड़ा है, बल्कि यह लाखों मछुआरों और भारतीय नागरिकों के जीवन से भी जुड़ा है।

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कच्चातिवु का हस्तांतरण और भारत के नागरिकों पर असर

कच्चातिवु टापू का श्रीलंका को हस्तांतरण भारतीय मछुआरों के लिए विशेष रूप से नुकसानदायक साबित हुआ है। भारत के तटीय क्षेत्रों में बसे हजारों मछुआरे इस द्वीप के आसपास मछली पकड़ने के लिए निर्भर थे। द्वीप का श्रीलंका को हस्तांतरण होने के बाद मछुआरे अपने पारंपरिक मछली पकड़ने के क्षेत्र से वंचित हो गए हैं, जिसके कारण उनकी आजीविका पर प्रतिकूल असर पड़ा है। इसके अलावा, द्वीप की भू-राजनीतिक स्थिति और उसकी सामरिक अहमियत भी भारत के लिए एक महत्वपूर्ण मुद्दा है।

समझौता या न्याय?

कच्चातिवु टापू का हस्तांतरण एक गंभीर अन्याय था, जिसे अब सुधारने की आवश्यकता है। भारतीय संविधान और संसद की मंजूरी के बिना इस तरह का हस्तांतरण भारत की संप्रभुता का उल्लंघन था। इस संदर्भ में, भारतीय सरकार को इसे रद्द करने और द्वीप को भारत में वापस एकीकृत करने के लिए ठोस कदम उठाने चाहिए।

सरकार को इस मुद्दे पर कूटनीतिक चैनलों के माध्यम से या अंतरराष्ट्रीय मंचों पर आवाज उठानी चाहिए। इस मुद्दे को सुलझाना न केवल राष्ट्रीय गौरव का विषय है, बल्कि यह भारतीय सुरक्षा और नागरिकों के आर्थिक हितों की रक्षा करने के लिए भी जरूरी है।

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आखिरकार, क्यों नहीं उठ रही कच्चातिवु टापू की बात?

अब समय आ चुका है कि भारत सरकार कच्चातिवु टापू के पुनः एकीकरण के लिए ठोस कदम उठाए। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को इस मुद्दे पर अपनी चुप्पी तोड़नी चाहिए और भारत के हितों के लिए तत्काल कार्रवाई करनी चाहिए। कच्चातिवु द्वीप का श्रीलंका को असंवैधानिक हस्तांतरण न केवल हमारे संविधान का उल्लंघन है, बल्कि यह भारतीय मछुआरों और नागरिकों के अधिकारों का भी हनन है।

केंद्र सरकार को इस मुद्दे को फिर से उठाना चाहिए और कच्चातिवु द्वीप को भारत के पास वापस लाने के लिए हर संभव कदम उठाना चाहिए।

ब्रिज खंडेलवाल

 

 

 

 

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Editor in Chief of Agra Bharat Hindi Dainik Newspaper
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