बृज खंडेलवाल
24 वर्षीय आईटी प्रोफेशनल, सशक्त, कामयाब, आज गुलाबी साड़ी में, जो हल्दी और फूलों की ख़ुशबू से अभी भी महक रही थी, पंखे से लटकी मिली। उसकी शादी को छह महीने ही हुए थे। मरने से पहले व्हाट्सएप स्टेटस डाला: “मैंने सब कुछ दिया, फिर भी कम पड़ा। माफ़ करना माँ…”।
एक और मामले में, एक माँ ने अपने बच्चे को सीने से लगाकर शारजाह में दसवीं मंज़िल से छलांग लगा दी। पीछे सिर्फ़ सिसकियाँ और कुछ मैसेज बचे — दहेज और ज़ुल्म की दास्तान।
ये कोई एक-दो वाक़ये नहीं हैं — ये भारत के घरों में रोज़ घट रही ख़ामोश अत्याचारी जंग की चीखें भरी तस्वीरें हैं, जहाँ शादी प्यार नहीं, सौदा बन जाती है। जहाँ बेटी एक इंसान नहीं, लेन-देन की चीज़ बन जाती है। करोड़ों खर्च करके भी मां बाप को इस बात की कोई गारंटी नहीं मिलती कि उनकी होनहार बेटी का दाम्पत्य जीवन भूखे भेड़ियों की ख्वाइशों की भेंट नहीं चढ़ेगा।
शॉकिंग फैक्ट ये है कि दहेज प्रथा, जिसे 1961 में क़ानूनन जुर्म ठहराया गया था, आज भी बेखौफ़ जारी है। दहेज निषेध अधिनियम, भारतीय दंड संहिता की धारा 304B (दहेज हत्या) और 498A (पति या ससुराल वालों द्वारा अत्याचार) के बावजूद, ज़मीनी हक़ीक़त ये है कि दहेज का दानव अब भी हज़ारों बेटियों की जान ले रहा है, कहती हैं सोशल एक्टिविस्ट भागीरथी गोपालकृष्णन।
प्रयागराज की अंशिका को 2024 में मौत मिली। पुलिस कहती है आत्महत्या, लेकिन पिता कहते हैं — “मेरी बेटी को मारा गया। हमने कार दी, गहने दिए, फिर भी लालच बना रहा।” शारजाह की अथुल्या की रहस्यमयी मौत को भी घरवाले साजिश बता रहे हैं — उसे बार-बार दहेज के लिए तंग किया गया।
जयपुर, दिल्ली, ओडिशा, बिहार, हरियाणा, पश्चिम बंगाल — हर जगह, हर राज्य में यही कहानी: नई दुल्हन, पुरानी माँगें, ज़ुल्म, और फिर मौत।
पब्लिक कॉमेंटेटर प्रोफेसर पारस नाथ चौधरी कहते हैं कि राष्ट्रीय महिला आयोग (NCW) के मुताबिक, “2024 में 292 दहेज हत्या की शिकायतें दर्ज हुईं। लेकिन हक़ीक़त इससे भी भयानक है। हर साल क़रीब 7,000 दहेज मौतें होती हैं, जिनमें से सिर्फ़ 4,500 मामलों में चार्जशीट दाख़िल होती है, और 100 से भी कम मामलों में सज़ा होती है। बाकी 90% केस अदालतों में सालों से लटके पड़े हैं। इतना ही नहीं — 67% जांच आधे साल से ज़्यादा समय तक रुकी रहती हैं, सबूत मिट जाते हैं, गवाह डर जाते हैं, और आरोपी खुले घूमते हैं।”
असल मुद्दा सिर्फ़ क़ानून का नहीं, समाज का भी है। एक 2024 के सर्वे में बताया गया कि 90% शादियों में दहेज आज भी लिया जाता है — वो भी खुलेआम। इसे “गिफ्ट”, “रिवाज” या “सम्मान” के नाम पर जायज़ ठहराया जाता है। और जब बेटी ससुराल जाती है, तो उसका दर्जा मेहमान का नहीं, सौदे की चीज़ का होता है।
पितृसत्ता, शादी में ऊँचा घर देखने की सोच , लड़की का ससुराल में रहना — ये सब मिलकर एक ऐसा माहौल बनाते हैं जहाँ दहेज की माँग, चाहे जितनी पूरी हो, कम ही लगती है, बताती हैं सामाजिक कार्यकर्ता पद्मिनी अय्यर। आज सोशल मीडिया पर लड़कियाँ सुसाइड से पहले दिल तोड़ देने वाले मैसेज डालती हैं। इंस्टाग्राम, ट्विटर पर आख़िरी चीख़ें दिखती हैं — मगर समाज कहता है: “घरेलू मामला है, नाज़ुक बात है, बढ़ाओ मत…”।
अब वक़्त है सच्चाई से आँख मिलाने का: भारत में दहेज के ख़िलाफ़ क़ानून नाकाम हो चुके हैं। क्योंकि न सिर्फ़ इनका ठीक से पालन नहीं होता, बल्कि समाज की सोच में भी कोई बदलाव नहीं आया। ना डर है, ना शर्म, ना अफ़सोस। युवा लेखिका मुक्ता बहन कहती हैं, “जब तक दहेज को जुर्म नहीं बल्कि परंपरा समझा जाएगा, जब तक पुलिस और अदालतें लड़कियों के बजाय शादी को बचाने की कोशिश करेंगी, जब तक गुनहगारों को सज़ा नहीं मिलेगी और गवाहों को सुरक्षा नहीं मिलेगी, तब तक ये मौतें यूँ ही होती रहेंगी।”
हर साल 6,000 से ज़्यादा बेटियाँ सिर्फ़ इसलिए मर जाती हैं क्योंकि उनका “मूल्य” पूरा नहीं हुआ। अगली बार जब आप किसी शादी में दुल्हन को गहनों में लिपटा देखें — तो सोचिए: क्या ये उसकी खुशी का इंश्योरेंस है… या उसके बलिदान की क़ीमत?