भारत — एक देश नहीं, एक जीवित सभ्यता।
जहाँ आज भी मंदिरों की घंटियाँ गूंजती हैं, पर्वों में ऋतुओं की लय दिखाई देती है, और जीवन की दिशा धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष के चार पुरुषार्थों से तय होती है। यह वह भूमि है जिसने बुद्ध, पतंजलि, कालिदास और विवेकानंद को जन्म दिया। यह वह संस्कृति है जो सहिष्णुता, संतुलन और आत्मानुशासन पर आधारित है।
लेकिन आज, इस सभ्यता पर एक मौन आक्रमण चल रहा है।
एक ऐसा हमला, जो तलवारों और टैंकों से नहीं — बल्कि विचारों, शब्दों और नीतियों से हो रहा है।
आधुनिक भारत में यह खतरा क्या है?
आज के भारत को देखें — आर्थिक विकास, तकनीकी उन्नति, वैश्विक पहचान… सब तेज़ी से बढ़ रहा है। परंतु इसी विकास की चकाचौंध के बीच, हमारी संस्कृति की चेतना धुंधली पड़ती जा रही है।
बच्चों को अब श्लोक नहीं आते, लेकिन विदेशी रैप गीत ज़रूर याद होते हैं।
त्योहार “छुट्टियों” में बदल चुके हैं।
और आत्मसम्मान को “communalism” कहा जाने लगा है।
ये सिर्फ ‘प्रगति’ नहीं है। ये संस्कृति की मिटती स्मृति है।
चार दिशाओं से हो रहा है हमला
इस आक्रमण की चार प्रमुख धाराएँ हैं — हर एक अलग दिखती है, लेकिन इनका लक्ष्य एक ही है: भारत की मूल सांस्कृतिक आत्मा को कमजोर करना।
1. इस्लामी आक्रमण की वैचारिक विरासत
इतिहास गवाह है कि भारत ने सैकड़ों वर्षों तक इस्लामी आक्रमणों का सामना किया। मंदिर तोड़े गए, धर्मांतरण हुए, और हमारी सामाजिक व्यवस्था को बार-बार तोड़ने की कोशिश की गई।
आज, इन्हीं आक्रमणों को “सांस्कृतिक योगदान” के रूप में प्रस्तुत किया जाता है।
असली इतिहास — राजपूतों, मराठों, सिखों, विजयनगर जैसे प्रतिरोधों का — या तो गायब कर दिया गया है, या उसे ‘हेट-स्पीच’ कहा जा रहा है।
यह स्मृति-हरण का खेल है, जिससे नई पीढ़ी अपने ही नायकों को न पहचान सके।
2. मिशनरी नेटवर्क और सांस्कृतिक धर्मांतरण
ईसाई मिशनरियों ने अपने प्रभाव को सिर्फ चर्चों तक सीमित नहीं रखा। आज स्कूल, अस्पताल, समाजसेवा — इन सभी माध्यमों से आदिवासी क्षेत्रों और गरीब तबकों को ‘सेवा’ के नाम पर धर्मांतरण की ओर प्रेरित किया जा रहा है।
इन मिशनों का स्पष्ट उद्देश्य है — भारत की ‘जड़’ संस्कृति को हटाकर एक ‘नव-ईसाई’ पहचान स्थापित करना।
परंपराओं को ‘जंगली’ कहा जाता है, लोक-देवताओं को ‘डरावना’, और पवित्र कर्मकांडों को ‘पाखंड’।
3. मैकाले मानसिकता: अपनी ही संस्कृति से शर्म
थॉमस मैकाले ने 1835 में यह घोषित किया था कि एक ऐसा वर्ग पैदा किया जाए जो “रंग से तो भारतीय हो, लेकिन सोच में अंग्रेज़।”
आज यही वर्ग भारत के प्रभावशाली क्षेत्रों में है — मीडिया, शिक्षा, सरकार, और यहां तक कि सामाजिक विमर्श में।
ये वर्ग:
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अपनी भाषा को ‘low-class’ मानता है,
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अपनी संस्कृति को ‘backward’,
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और पश्चिमी सोच को ‘intellectual’।
इस मानसिकता में आत्म-गौरव नहीं होता — केवल आत्म-त्याग, पर वो भी अपनी संस्कृति का।
4. वामपंथी वैचारिक हमला
कम्युनिस्ट और वामपंथी विचारधारा ने भारतीय संस्कृति को ‘ब्राह्मणवादी’, ‘सामंती’ और ‘रूढ़िवादी’ कहकर खारिज किया। इनका एजेंडा है — हर धार्मिक प्रतीक को तोड़ना, हर गौरवशाली इतिहास को झुठलाना, और हर आध्यात्मिक मूल्यों को ‘दमनकारी’ सिद्ध करना।
आज भारत के कई विश्वविद्यालयों, NGOs, और मीडिया घरानों में यही मानसिकता काम कर रही है — जो एक पूरी सभ्यता को ही ‘प्रॉब्लम’ समझती है।
सबसे बड़ा खतरा: भीतर से हमला
यह आक्रमण अब बाहर से नहीं हो रहा।
हमारे ही बच्चे, हमारे ही युवा, हमारे ही पढ़े-लिखे लोग — अपनी भाषा, संस्कृति और धर्म से दूर हो चुके हैं।
कई बार यह दूरी शर्म में बदल जाती है।
फिर शर्म हंसी में।
और अंततः, हंसी भूलने में।
तो क्या करें?
इस स्थिति का हल न तो नफ़रत है, न हिंसा।
समाधान है — पुनः जुड़ाव।
हमें फिर से जानना होगा कि हम कौन हैं।
हमें अपने ग्रंथों को फिर से पढ़ना होगा — सिर्फ आस्था के लिए नहीं, बल्कि समझ के लिए।
हमें अपनी परंपराओं को केवल ‘मानना’ नहीं, बल्कि समझकर स्वीकारना होगा।
भारत को बचाने के लिए तलवार नहीं चाहिए।
उसे स्मरण चाहिए।
संवेदनशीलता चाहिए।
और साहस — यह कहने का कि हम अपनी सभ्यता से शर्मिंदा नहीं हैं।
जब कोई संस्कृति अपने ही लोगों द्वारा भुला दी जाती है, तो वह इतिहास में सिर्फ एक “अतीत की झलक” बनकर रह जाती है।
भारत आज भी जीवित है — पर अगर हम यही राह चलते रहे, तो हो सकता है हमारी अगली पीढ़ियाँ हमें केवल म्यूज़ियम में देखें।
🪔 इससे पहले कि देर हो जाए — जागिए, समझिए, और जुड़िए।