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पिता की संपत्ति पर बेटी का हक: सुप्रीम कोर्ट ने दिया बड़ा झटका या बस भ्रम? जानें 2005 के कानून का असली सच!

Manasvi Chaudhary
6 Min Read
पिता की संपत्ति पर बेटी का हक: सुप्रीम कोर्ट ने दिया बड़ा झटका या बस भ्रम? जानें 2005 के कानून का असली सच!

नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट के एक हालिया फैसले ने देशभर में एक नई बहस छेड़ दी है कि क्या बेटियां अब अपने पिता की संपत्ति में हिस्सा नहीं ले पाएंगी। इस फैसले को लेकर कई लोगों में भ्रम की स्थिति है। आइए, इस पूरे मामले को सरल भाषा में समझते हैं, ताकि यह स्पष्ट हो सके कि वास्तविक स्थिति क्या है।

क्या है पूरा मामला?

यह मामला एक महिला से जुड़ा था, जिसने अपने पिता की मृत्यु के बाद उनकी संपत्ति पर दावा किया था। महिला ने कोर्ट में याचिका दायर कर कहा कि वह हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम के तहत अपने पिता की अचल संपत्ति की बराबर की हकदार है। हालांकि, मामला इस बात पर अटक गया कि वह संपत्ति पिता की स्व-अर्जित (खुद की कमाई हुई) थी या पैतृक।

कोर्ट का तर्क: कब नहीं मिलता बेटी को हिस्सा?

सुप्रीम कोर्ट ने सुनवाई के दौरान स्पष्ट किया कि अगर कोई संपत्ति पिता ने खुद कमाई है, यानी वह स्व-अर्जित है, तो उस पर किसी और का हक तब तक नहीं बनता जब तक पिता ने वसीयत में उसका नाम न लिखा हो। पिता को यह अधिकार है कि वह अपनी स्व-अर्जित संपत्ति अपनी मर्जी से किसी को भी दे सकते हैं — चाहे वह बेटा हो, बेटी हो या कोई अन्य व्यक्ति। यदि वसीयत नहीं बनी है और पिता की मृत्यु 2005 के हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम संशोधन से पहले हो गई है, तो बेटी का दावा कमजोर हो सकता है।

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सुप्रीम कोर्ट ने इन 9 बिंदुओं पर दिया जोर:

सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले के लिए 9 महत्वपूर्ण बिंदु गिनाए, जिनके आधार पर यह निर्णय दिया गया:

  1. खुद की कमाई हुई संपत्ति पर उत्तराधिकार तभी बनता है जब वसीयत न हो।
  2. वसीयत में जिसका नाम है, संपत्ति उसी को मिलेगी।
  3. 2005 का जो कानून (हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम संशोधन) आया था, वह सिर्फ पैतृक संपत्ति पर लागू होता है।
  4. यदि बेटी की शादी पिता की मृत्यु से पहले हो गई हो, तो उसका भी असर हो सकता है।
  5. पिता के जीवित रहते कोई भी दावा कोर्ट संदेह की दृष्टि से देख सकती है।
  6. अदालत में दस्तावेजों के आधार पर ही फैसला होता है।
  7. कानूनी बंटवारे की मान्यता जरूरी है।
  8. मेहनत से अर्जित संपत्ति पर दावा सीमित होता है।
  9. भले कानून बदले हों, लेकिन उनका प्रभाव परिस्थितियों पर निर्भर करता है।

कानून क्या कहता है?

हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 1956 के तहत बेटियों को पैतृक संपत्ति में अधिकार है। लेकिन 2005 में इसमें संशोधन हुआ, जिसके बाद बेटियों को बेटों के बराबर अधिकार मिला — लेकिन दो मुख्य शर्तों पर:

  1. पिता की मृत्यु 9 सितंबर 2005 के बाद हुई हो।
  2. संपत्ति पैतृक हो, न कि खुद कमाई हुई (स्व-अर्जित)।
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बेटियों को क्या करना चाहिए?

अगर आप भी अपने पिता की संपत्ति पर हक जताना चाहती हैं, तो इन दस्तावेजों का होना ज़रूरी है:

  • पिता का डेथ सर्टिफिकेट
  • संपत्ति के दस्तावेज – यह साबित करने के लिए कि वह पैतृक है या स्व-अर्जित है।
  • कोई वसीयत है या नहीं – यह बेहद अहम है।
  • परिवार के अन्य दावेदार कौन हैं – उनकी जानकारी।
  • कोर्ट में याचिका दाखिल करने के लिए मजबूत सबूत

क्या यह नियम सभी बेटियों पर लागू होगा?

नहीं, बिलकुल नहीं। यह फैसला उन विशिष्ट मामलों पर लागू होगा जहाँ:

  • पिता की मृत्यु 2005 के संशोधन से पहले हुई है।
  • संपत्ति स्व-अर्जित है और उस पर वसीयत बनी हुई है।
  • बेटी ने दावा बहुत देर से किया हो।

यदि पिता की मृत्यु 2005 के बाद हुई है और संपत्ति पैतृक है, तो बेटी को कानूनन पूरा हक मिलेगा। इसका मतलब है कि प्रत्येक मामले का फैसला उसकी विशिष्ट परिस्थितियों के आधार पर होगा।

सोशल मीडिया पर मची बहस

इस फैसले के बाद सोशल मीडिया पर लोग दो हिस्सों में बंट गए हैं। कुछ लोगों ने कोर्ट के फैसले को सही बताया, वहीं कुछ का कहना है कि यह बेटियों के अधिकारों के खिलाफ है। कई महिलाओं ने सवाल उठाया कि अगर बेटा संपत्ति का हकदार है तो बेटी क्यों नहीं?

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निष्कर्ष यह है कि ऐसा नहीं है कि बेटियों को हक नहीं मिलेगा। लेकिन यह इस बात पर निर्भर करता है कि संपत्ति कैसी है — पैतृक या स्व-अर्जित, और क्या वसीयत मौजूद है या नहीं। अगर वसीयत बनी है, तो पिता जिसे चाहें, संपत्ति दे सकते हैं। लेकिन अगर वसीयत नहीं बनी और संपत्ति पैतृक है, तो बेटी को कानूनन पूरा हक मिलता है। इसलिए, यह ज़रूरी है कि परिवार और बेटियां इस तरह के मामलों में जागरूक रहें और समय पर उचित कानूनी कदम उठाएं।

अस्वीकरण (Disclaimer): यह लेख सामान्य जानकारी के लिए है। इसमें दी गई जानकारी विभिन्न मीडिया रिपोर्ट्स और कोर्ट आदेशों पर आधारित है। किसी भी प्रकार का कानूनी निर्णय लेने से पहले संबंधित वकील या विशेषज्ञ की सलाह ज़रूर लें। नियम और कानून समय के साथ बदल सकते हैं।

 

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