विश्व पुस्तक मेले में आगरा के कवि समीक्षक की कविताओं “देर सवेर ही सही “ का हुआ लोकार्पण

Dharmender Singh Malik
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आगरा के कवि समीक्षक अनिल कुमार शर्मा की कविताओं के तृतीय संकलन“देर सवेर ही सही “ का आज विश्व पुस्तक मेले में लोकार्पण हुआ । इस शुभ अवसर पर श्री संतोष चतुर्वेदी कुलाधिपति रबीन्द्रनाथ टैगोर विश्वविद्यालय, कुलाधिपति, प्रसिद्ध समीक्षक लीलाधर मंडलोई, गीतकार ओम निश्चल, गहनशील विचारक प्राँजल धर, शिक्षाविद मृदुला शुक्ला, कवि राजीव खण्डेलवाल की उपस्थिति ने एवं पुस्तक पर लिखी कवि माया मृग जी की समीक्षा ने पुस्तक व आयोजन को गरिमा प्रदान की ।

कठिन जीवन का सरल राग
काव्यशास्त्रियों के लिए चुनौती सदा से रही है कि वे कविता को कैसे परिभाषित करें। कविता है क्या? भावक या सृजक के मन में कविता का रस कहां उपजता है? इन शास्त्रीय प्रश्नों में एक नूतन प्रश्न भी कालांतर में शामिल हो गया- कविता है कहां?

कविता की खोज में कवि कहां जाए, पाठक उसे कहां पाये अपने मन की कविता, या कि किताब तक आने से पहले कहां रहती है कविता; ये सवाल साहित्य के विद्यार्थी होने के नाते हर लिखने वाले को कभी न कभी जरूर मथते हैं। आपको भी, मुझे भी।

इस पुस्तक “ देर सवेर ही सही “के रचयिता से पूछेंगे तो उत्तर मिलेगा, यहीं, अपने आसपास कहीं। एक बड़ा सच कितनी आसानी से और सहजता से कह दिया गया। कविता कोई आसमानी चीज नहीं, किसी पहाड़, बगीचे या समन्दर तक नहीं जाना उसे खोजने, बस ‘जरा नज़र झुकाई और दीदारे यार हो गया’ वाली स्थिति है। हमारे साथ दिक्कत अक्सर यही होती है कि हम जीवन को बड़े नारों, बड़ी जगहों और बड़े नामों में ढूंढते रहते हैं जबकि जीवन की सच्ची कविता हमारे इर्द गिर्द ही कहीं होती है, कई बार तो इतने पास कि जरा हाथ बढ़ाने भर से सिमट आये। इतना भी नहीं करते हम, अनिल शर्मा करते हैं। वे निजी जीवन से बात शुरू करते हैं और उसी से बंधे हर धागे को टटोलते हैं, परखते हैं, खींच-तान कर देखते हैं। ये ही धागे बुनते हैं उनकी कविता।

उनकी कविता में प्रेम है, एकांगी नहीं, आदर्श नहीं, किसी उच्चता बोध से ग्रसित नहीं बल्कि रोजमर्रा की दिनचर्या में रचा-पगा। छोटी सी घटना, कोई छोटा सा अंतराल दाम्पत्य के सरस भाव को सोख लेता है। ऊब और नीरसता प्रेम के साथ भी जुड़े हैं यह बताने के लिए कवि एक स्थिति विशेष का सहारा लेकर बताता है कि इंटरनेट बंद है, ऐसा लगता है तब करने को कुछ भी शेष नहीं रहा, प्रेम भी नहीं। कितनी व्यावहारिक स्थिति है, खराब लगता, चुभता सा सच है पर है तो सच ही।

अनिल कुमार शर्मा इसी तरह सच के छोटे छोटे टुकड़े उठाते हैं, उन्हें जी भर कुरेदते हैं और पाठक को सौंपकर एक तरफ खड़े हो जाते हैं। इस पुस्तक की कविताएं इसीलिए विशिष्ट हैं कि इनमें कवि की उपस्थिति उतनी ही है, जितनी जरूरी थी। कविता और पाठक के बीच में से कवि के हट जाने की कला उन्हें खूब आती है। नन्हीं चिरैया के नाम खत लिखते हैं और कविता के अंत तक जाते जाते समझ आता है वहां एक चिरैया नहीं पूरा एक समुदाय, एक वर्ग सवाल करता हुआ सा खड़ा है। चिरैया एक बहाना भर थी, असल थे सवाल जो सुलगाकर रख दिये गए सामने। स्त्री-प्रश्नों को इस तरह सादगी से बहुत कम ही कहते सुना पढ़ा होगा। यह सादगी जानलेवा है, सवाल बेपर्दा होकर आते हैं और सीधे आंख में चुभते हैं, भीतर उतर जाते हैं। औरत को मिट्‌टी का खिलौना बताकर वे उन लोगों के साथ नहीं खड़े होते हैं जो इससे खेलते हैं, वह उस मिट्‌टी के साथ अपनापा जताते हैं जिससे खिलौना बना है। समाज को अगर किसी पेड़ या पौधे के रूपक में बांधें तो स्त्री को धरती ही कहेंगे, जिसमें यह पेड़ या पौधा जमा है, थमा है। धरती को चाहे मां कहते रहें पर खिलवाड़ उससे भी करते ही हैं।

प्रेम और स्त्री से जुड़ी कविताएं संग्रह का मुख्य स्वर हैं और प्रभावी स्वर भी। कभी प्रतीकों के जरिये तो कभी सीधे वक्तव्य में स्त्री जीवन का स्पेक्ट्रम नज़र आता है। रेखांकित करने योग्य बात यह है कि यह प्रेम और स्त्री का राग निरपेक्ष नहीं है, समय और स्थितियों के सापेक्ष उनका रूप तय होता है, बदलता भी है। भले ही कवि “लहरें जैसे प्रेम करती हैं चन्द्रमा से” और समन्दर में उठान होता है, ज्वार आता है जैसे खूबसूरत उठान की कामना करता हो किन्तु यथार्थ में यह केवल प्रकृति के उपादानों में ही संभव है वाले सत्य को भी वह पहचानता है। यथार्थ में भी कितना कुछ है जो हमारे आसपास कहीं हमेशा रहता है। यह सामाजिक दबाव हो सकते हैं, राजनैतिक छल प्रपंच और दावपेंच हो सकते हैं या कि रिश्तों में उतार चढ़ाव और साहित्यिक या भाषायी चुनौतियां भी। ये सब ही तो मिलाकर जीवन को पूरा करते हैं। अनिल शर्मा किसी भी अंश या हिस्से को अनदेखा नहीं करते, देखते जरूर हैं। कहीं-कहीं गहरे तक डूबकर या कहीं सिर्फ सरसरी तौर पर ही।

थोड़े में ज्यादा कहा जाए तो कहना होगा कि अनिल शर्मा जीवन के कठिन राग के सरल कवि हैं। वे सब कुछ कहते हैं पर किसी भी कहे में उलझते नहीं, जो है, वह कह दिया। यह बात सुनने पढ़ने में जितनी आसान लगती है उतनी करने में नहीं। भाषा और शब्द सज्जा के आकर्षण से मुक्ति इतनी सहज नहीं। वे इसे सहज कर पाए हैं और यह पुस्तक उसका सजीव उदाहरण है।

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Editor in Chief of Agra Bharat Hindi Dainik Newspaper
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