UP: यादव-मुस्लिम वोटों में बिखराव; अखिलेश यादव के सामने पिता मुलायम की विरासत संजोए रखने की चुनौती….

UP: यादव-मुस्लिम वोटों में बिखराव; अखिलेश यादव के सामने पिता मुलायम की विरासत संजोए रखने की चुनौती....

Dharmender Singh Malik
10 Min Read

सैफई… इटावा का वो गांव, जो कभी लोगों के लिए कोई महत्व नहीं रखता था पर राजनीति में ‘नेताजी’ के नाम से पहचान बनाने वाले पहलवान मुलायम सिंह यादव ने कुछ ऐसे सियासी दांव चले कि देश-दुनिया तक उसकी चमक बिखरी।

राजनीति के अखाड़े में चले दांव-पेच में माहिर मुलायम ने शुरुआत की तो फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा। पहली बार वो 1989 में जनता दल से मुख्यमंत्री बने। इसके बाद MY (मुस्लिम-यादव) समीकरण साधकर 1992 में समाजवादी पार्टी का गठन कर ऐसी साइकिल दौड़ाई कि प्रदेश की राजनीति की धुरी बन गए।

पार्टी गठन के चार वर्ष बाद ही वह राष्ट्रीय राजनीति में बड़ी पहचान बनकर उभरे और देश के रक्षा मंत्री तक बने। तब इटावा, औरैया, कन्नौज और फर्रुखाबाद से सटी लोकसभा सीटें सपा का मजबूत किला हुआ करती थीं।

मुलायम ने 2012 में अखिलेश को सौंपी कमान

जिसका जलवा कायम है, उसका नाम मुलायम है ….पार्टी कार्यकर्ता पूरे गुरूर से नारा बुलंद करते थे। फिर एक दौर आया, जब उन्होंने 2012 में सत्ता की चाबी अपने बेटे अखिलेश यादव को सौंप दी।

अखिलेश ने इन पांच साल में एक्सप्रेसवे से लेकर नई-नई योजना प्रदेशवासियों को दी । अपनी पत्नी डिंपल यादव को 2012 में कन्नौज से निर्विरोध सांसद बनवा लिया। हालांकि, इसके दो साल बाद ही वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में जब पिता की राजनीतिक विरासत संजोए रखने की चुनौती सामने आई तो सपा की पकड़ ढीली दिखी। कानपुर-बुंदेलखंड क्षेत्र की 10 लोकसभा सीटों में सिर्फ कन्नौज सीट ही बचा सकी।

2017 के विधानसभा चुनाव में सपा ने कांग्रेस से गठबंधन किया, लेकिन ये गठबंधन भी फुस्स साबित हुआ। दो साल बाद वर्ष 2019 के लोस चुनाव में सपा ने बसपा से गठबंधन किया। 1993 की तरह भाजपा को हारने को जोर तो लगाया पर यह मंशा भी फेल हो गई।

See also  लीक से हटकर लंबी लकीर खींचने में जुटीं प्रवीना सिंह, किरावली की तस्वीर बदलने का किया वादा

डिंपल यादव को कन्नौज से मिली थी हार

सपा प्रमुख अखिलेश की पत्नी डिंपल भी कन्नौज से हार गईं। अब एक बार फिर 2024 की चुनावी नैया पार करने के लिए सपा ने कांग्रेस का हाथ पकड़ा है। अब वो कितना कामयाब होता है, यह तो समय बताएगा। फिलहाल, पार्टी ने पीडीए (पिछड़ा, दलित, अल्पसंख्यक) समीकरण को साधने का प्रयास किया है। कानपुर-बुंदेलखंड की 10 सीटों में नौ पर सपाई धुरंधर मैदान में हैं।

सपा के राजनीतिक सफर को देखने के लिए अतीत के पन्नों में भी झांकना जरूरी है। वर्ष 1989 में मुलायम सिंह यादव की प्रदेश में सरकार बनने के बाद उनका प्रभाव इटावा में भी बढ़ा। जमीन से जुड़े नेता होने के कारण धरती पुत्र की उपाधि पाने वाले मुलायम सिंह भले सरकार में रहे हों पर संगठन को उन्होंने हमेशा ही तरजीह दी, तो पिछड़े वर्ग के नेताओं से उनका सामन्जस्य बेहतर होने के कारण यादव के साथ दूसरी पिछड़ी जातियों में भी वह स्वीकार्य रहे।

इटावा, मैनपुरी, कन्नौज में यादव बहुल सीट पर मजबूत MY समीकरण के कारण उनको चुनौती देना मुश्किल था। वहीं, आसपास की दूसरी सीटों पर MY के साथ दूसरी प्रभावशाली पिछड़ी जातियों पर पकड़ से वह अजेय रहे।

शाक्य बिरादरी के नेताओं को संगठन में महत्व दिए जाने के कारण ही जनता दल में रहते हुए ही इटावा सीट पर राम सिंह शाक्य लोकसभा सीट से सांसद बने। समाजवादी पार्टी का गठन 1992 में हुआ था। हालांकि, उससे पहले सपा संरक्षक मुलायम सिंह यादव 1991 में बसपा प्रमुख काशीराम को इटावा लोकसभा सीट पर चुनाव लड़ाने के लिए लाए थे। उनको जिता कर भी भेजा था।

काशीराम की सलाह पर ही मुलायम ने उनसे गठबंधन करने के लिए नई पार्टी सपा का गठन किया था। उसके बाद 1996 में सपा के राम सिंह शाक्य चुनाव जीत गए। 1998 में भाजपा की सुखदा मिश्रा पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी लहर में चुनाव जीत गईं। उसके बाद वर्ष 1999 और 2004 में रघुराज सिंह शाक्य लगातार चुनाव जीते।

2009 में नया परिसीमन होने पर सीट अनुसूचित जाति के लिए सुरक्षित हुई तो सपा के प्रेमदास कठेरिया के सिर पर जीत का सेहरा सजा। उसके बाद 2014 की मोदी लहर में भाजपा के अशोक दोहरे चुनाव जीते। सुरक्षित सीट होने से सपा को 2014 व 2019 में मजबूत प्रत्याशी नहीं मिला, नतीजतन चुनाव हारना पड़ा।

See also  कर्नाटक कांग्रेस में मुख्‍यमंत्री कौन होगा? पद के लिए शुरू हुई खींचतानी

चाचा भतीजे के बीच दरार से सपा हुई कमजोर

इस बीच शिवपाल-अखिलेश के बीच 2016 में आई दरार ने भी सपा को कमजोर किया। सपा के कई बड़े नेता चुपचाप शांत होकर बैठ गए। 2019 में भाजपा की टिकट पर उतरे प्रोफेसर रामशंकर कठेरिया ने इटावा में जीत पाई।

जब पिछड़ी जातियों पर कमजोर हुई पकड़

इटावा का यादव बहुल भरथना क्षेत्र कन्नौज लोकसभा सीट का हिस्सा होने के कारण सपा ने 1998 में जीत हासिल की थी। 1999 में सपा के संस्थापक मुलायम सिंह यादव कन्नौज लोकसभा सीट पर चुनाव लड़े। इससे कन्नौज के अलावा आसपास के इलाकों में भी सपा मजबूत होती गई।

उसने कन्नौज के साथ ही फर्रुखाबाद लोकसभा सीट पर 1999 और 2004 में लगातार दो बार जीती। उसके बाद से कन्नौज लोकसभा सीट पर मुलायम सिंह के उत्तराधिकारी के रूप में उनके पुत्र अखिलेश यादव ने अपनी कर्मस्थली बनाई। इस कारण यह इलाका सपाई गढ़ बन गया।

परिसीमन में भरथना विधानसभा क्षेत्र कन्नौज से हटा तो लोध बिरादरी सीट पर प्रभावी हो गई। इस बिरादरी के नेताओं का नेतृत्व बढ़ा। इसका नतीजा है कि 2012 में हुए विधानसभा चुनाव में सपा ने कन्नौज व फर्रुखाबाद जिले की सभी सातों सीटों पर कब्जा किया।

भगवा लहर में सपा का किला हुआ ध्वस्त

2014 में फर्रुखाबाद सीट मोदी लहर में भाजपा के खाते में आ गई। प्रदेश में चली भगवा लहर में सपा का यह किला 2017 के विधानसभा चुनाव में ही ध्वस्त हो गया। दोनों ही चुनाव में सपा का एमवाइ के अलावा दूसरी पिछड़ी जातियों पर पकड़ कम हुई और भाजपा ने मोदी के पिछड़ा होने को खूब भुनाया नतीजतन कन्नौज जैसी मजबूत सीट सपा से छिन गई।

कमोवेश यही स्थिति दूसरी सीटों पर भी बनी, उसके साथ ‘नेताजी’ जी की अस्वस्थता ने भी पार्टी को आम कार्यकर्ताओं से दूर कर दिया। उनके दिवंगत होने के बाद भावनात्मक जुड़ाव टूटना भी इस चुनाव में पार्टी के लिए मुश्किल पेश करेगा।

See also  मंत्री पद की दौड़ में राजभर: सीएम से मुलाकात के बाद अटकलें तेज

बुंदेलखंड की बांदा-चित्रकूट लोकसभा सीट की राजनीति तमाम वर्षों तक डकैतों के फरमान पर चलती रही। वर्ष 2004 में पाठा के सबसे बड़े डकैत शिव कुमार पटेल उर्फ ददुआ का पूरा कुनबा समाजवादी हो गया, तभी बांदा-चित्रकूट सीट पर सपा के श्यामाचरण गुप्त सांसद चुने गए।

वर्ष 2014 में मोदी की लहर में यह सीट भाजपा की झोली में गई। वर्ष 2019 में भी भाजपा यहां जीती। जालौन-भोगनीपुर-गरौठा सीट यूं तो भाजपा की गढ़ रही है पर वर्ष 2009 के चुनाव में सपा यहां खाता खोलने में सफल रही थी, लेकिन बाद में उसका जनाधार कम होता चला गया।

बुंदेलखंड के हमीरपुर-महोबा में भी सपा को 2014 के बाद भाजपा ने उबरने नहीं दिया। वहीं, उन्नाव में मुलायम सिंह के पुराने साथी जनता दल से सांसद रहे अनवार अहमद ने सपा को काफी मजबूत किया।

स्थापना के सात वर्ष बाद 1999 में सपा से दीपक कुमार सांसद चुने गए। बाद में 2012 के विधानसभा चुनाव में जिले की छह में से पांच सीटें जीत कर सपा ने अपना प्रभुत्व दिखाया, लेकिन फिर धीरे-धीरे हाशिये पर चली गई।

वहीं, सपा की मजबूत सीटों में गिनती रखने वाली फतेहपुर लोकसभा सीट पर वर्ष 2009 के लोकसभा चुनाव में राकेश सचान ने साइकिल की रफ्तार बढ़ाकर जीत दर्ज की। हालांकि, वर्ष 2014 के चुनाव में वह तीसरे स्थान पर पहुंच गए।

भाजपा की साध्वी निरंजन ज्योति ने जीत का परचम लहराया कि 2019 में भी यह सिलसिला बरकरार रहा। सपा के लगातार गिरते ग्राफ का मुख्य कारण संगठन में गुटबाजी और मुस्लिम, यादव वोटों में विखराव होना रहा। सपा अब इस विखराव को रोकने का प्रयास में लगी है।

See also  काल रात्रि कल्याणी तेरा जोड़ धरा पर कोई नहीं संजीवनी ने सजाया मां भगवती का दरबार
Share This Article
Editor in Chief of Agra Bharat Hindi Dainik Newspaper
Leave a comment

Leave a Reply

error: AGRABHARAT.COM Copywrite Content.