ट्रंप पूछ रहे हैं, ये रिश्ता क्या कहलाता है?
बृज खंडेलवाल
दिल्ली की कड़कड़ाती सर्दी अचानक कुछ हल्की पड़ गई, जब व्लादिमीर पुतिन का विमान उतरा और राजधानी ‘पुतिन यात्रा’ की राजनीतिक गर्माहट में नहा उठी। दिसंबर की ठिठुरन ही नहीं टूटी—भारत-रूस की पुरानी दोस्ती भी नई चमक के साथ दुनिया के सामने उभरी, जैसे भारत आत्मविश्वास के साथ वैश्विक नेतृत्व की केंद्र-पट्टी पर वापस लौट आया हो।
यह यात्रा महज़ औपचारिक नहीं थी। यहां भाजपा सरकार की बदली-बदली विदेश नीति का साफ़ संकेत मिला, ऐसी नीति जो विचारधारा से अधिक हकीकत पर टिकी है, और दिलचस्प यह कि नेहरू की “रणनीतिक स्वायत्तता” वाली सोच को भी आज के भारत में नई वैधता दे रही है।
अतीत में भाजपा का झुकाव पश्चिमी पूंजीवाद और दक्षिणपंथी व्यवस्था की ओर रहा, पर 2025 का भारत एक साथ मास्को, पश्चिम एशिया, अफ्रीका और यहाँ तक कि बीजिंग से भी guarded संवाद कर रहा है। कांग्रेस इसे “भ्रमित सुधार” कहती है, पर असल में यह कन्फ्यूजन नहीं, बल्कि कन्वर्जेंस है—जहाँ विचारधारा पीछे है, और राष्ट्रीय हित आगे। जब पश्चिम अपने ही संकटों में उलझा और चिड़चिड़ा दिखता है, भारत विकास की नई राहें उत्तर और पूरब में तलाश रहा है, वॉशिंगटन की उलटबांसी से मुक्त होकर।
नई दिल्ली में माहौल ऊर्जावान था और नतीजे भी कम अहम नहीं। पुतिन–मोदी वार्ता के बाद जारी साझा बयान ने रणनीतिक रिश्तों की नई रूपरेखा पेश की, रक्षा सहयोग, परमाणु ऊर्जा, आर्कटिक नौवहन, व्यापार सेटलमेंट और सहज यात्रा व्यवस्थाएँ तक।
सबसे बड़ा आकर्षण रहा रूस का महत्त्वपूर्ण तोहफ़ा, नई पीढ़ी के स्मॉल मॉड्युलर न्यूक्लियर रिएक्टर (SMRs)। भारत के ऊर्जा भविष्य के लिए यह तकनीक उम्मीद की नई लौ है, सुरक्षित, टिकाऊ और स्थानीय स्तर पर तैनात होने योग्य। ऐसा भारत जो विकास और जलवायु प्रतिबद्धताओं को साथ लेकर चलना चाहता है, उसके लिए यह क़दम लगभग एक ऊर्जा-इंक़लाब जैसा साबित हो सकता है।
ऊर्जा साझेदारी पर बातचीत सबसे मुखर दिखी। पुतिन ने दोहराया कि रूस किसी भी परिस्थिति में भारत का सबसे भरोसेमंद ऊर्जा साथी रहेगा। पश्चिमी बाज़ारों की अनिश्चितता के बीच यह वादा वजनदार लगता है।
दोनों देशों ने डी-डॉलराइजेशन की दिशा में बड़ा कदम बढ़ाया, अब लेनदेन राष्ट्रीय मुद्राओं में होगा और यूरेशियन आर्थिक संघ के साथ मुक्त व्यापार वार्ता फिर शुरू की जाएगी।
इसके साथ रूस में भारतीय जैव-प्रौद्योगिकी आधारित फार्मा संयंत्र, नया मोबिलिटी फ्रेमवर्क और रूसी पर्यटकों के लिए 30 दिन का शुल्क-मुक्त ई-वीज़ा, इन सबने रिश्तों में मानवीय गर्माहट घोल दी। भारत के नाविकों को आर्कटिक मार्गों के लिए रूस में प्रशिक्षण देने का निर्णय भविष्य के महासागरीय भूगोल में दोनों देशों की साझा दावेदारी को दर्शाता है।
पुतिन ने मोदी की तारीफ़ करते हुए कहा, “भारत खुशनसीब है कि उसके पास ऐसा नेता है जो दबाव में नहीं झुकता।” यह टिप्पणी ऐसे समय आई है जब भारत-अमेरिका रिश्तों में तकनीकी पाबंदियाँ और तेल व्यापार को लेकर तनाव बढ़ा है।
भारत-रूस संबंधों की जड़ें इतिहास में गहरे धंसी हैं, स्टील प्लांटों और मिग विमानों से लेकर 1971 की शांति और मित्रता संधि तक। सोवियत संघ के टूटने के बाद भी सहयोग कायम रहा—रक्षा, अंतरिक्ष और परमाणु ऊर्जा के स्तंभों पर टिके हुए। आज भी रूस भारत का सबसे बड़ा रक्षा आपूर्तिकर्ता है, पर दोनों देश अब अपने संबंधों को बदलती दुनिया की नई वास्तविकताओं के अनुरूप ढाल रहे हैं।
भारत के लिए रूस सिर्फ हमसफ़र नहीं, पश्चिमी अस्थिरता के बीच एक भरोसेमंद ढाल भी है।
बीजिंग प्रतिक्रिया में सतर्क रहेगा, चिंतित नहीं। चीन अच्छी तरह जानता है कि भारत–रूस रिश्ता स्थायी और पुराना है। रूस के प्रभाव से भारत-चीन संबंधों में एक प्रकार का संतुलन भी संभव है, जो एशिया की स्थिरता के लिए महत्त्वपूर्ण है।
अमेरिका की बेचैनी लाजिमी है। पहले ही सस्ते रूसी तेल और संयुक्त राष्ट्र मंचों पर भारत की स्वतंत्र लाइन को लेकर वॉशिंगटन असहज था, अब पुतिन-मोदी की यह गर्मजोशी उसके इंडो-पैसिफ़िक समीकरण को चुनौती देती प्रतीत होगी। पर भारत स्पष्ट कर चुका है, रूस अपरिहार्य है: रक्षा, ऊर्जा स्थिरता और वैश्विक संतुलन, तीनों के लिए।
इस यात्रा का सबसे निर्णायक आयाम परमाणु ऊर्जा क्षेत्र में आया। रूस ने भारत के साथ SMR तकनीक के सह-विकास की इच्छा जताई, जो भारत की स्वच्छ ऊर्जा नीति को नई उड़ान दे सकता है। ये छोटे रिएक्टर न केवल कोयले पर निर्भरता घटाएँगे, बल्कि हाइड्रोजन उत्पादन, स्थानीय बिजली और ऊर्जा-आयात पर नियंत्रण में भी मदद करेंगे।
कुल मिलाकर, पुतिन की यह यात्रा दो देशों के साझा इरादे का बयान है, पाबंदियों, सप्लाई संकटों और पश्चिम की inward-looking नीतियों के दौर में भी भारत और रूस की साझेदारी स्थिर है, जीवंत है, और वक्त के साथ नई आकृतियाँ ले रही है। यह रिश्ता सिर्फ यादों पर नहीं, बल्कि बदलती परिस्थितियों में खुद को ढालने की क्षमता पर टिका है।
जब पश्चिम अपने दरवाजे बंद कर रहा है और यूरोप संशय में डूबा है, दिल्ली और मास्को ने एक बार फिर “हम साथ-साथ हैं” का रास्ता चुना है।
संदेश गहरा है, कुछ रिश्ते सिर्फ चलते नहीं रहते, समय के साथ और निखरते हैं।
दिल्ली भले फिर से बर्फ़ीली धुंध में लिपट गई हो, पर क्रेमलिन की वह गर्माहट हवा में अब भी तैर रही है।
“अंकल सैम” की मुरझाई खबरों के बीच, मास्को की यह बाहें भारत के लिए उम्मीद की नई किरण बनकर आई हैं।
