- इंडियन एकेडमी आफ पीडिएट्रिक (आईएपी) ने उजाला सिग्नस रेनबो हाॅस्पिटल और रेनबो आईवीएफ के साथ की डाउन सिंड्रोम पर कार्यशाला
- दो अलग-अलग विशेषज्ञता वाले चिकित्सक एक संबद्ध विषय पर एक राय, बोले डाउन सिंड्रोम के साथ बच्चे का जन्म हो, इससे अच्छा जांच कराएं
आगरा। गर्भधारण के पहले और गर्भावस्था के दौरान की जाने वाली जेनेटिक काउंसलिंग में आपकी और आपके परिवार की मेडिकल हिस्ट्री का अध्ययन किया जाता है। इससे ये पता चलता है कि किस तरह की आनुवांशिक स्थितियां आपको विरासत में मिली हैं और जरूरत पड़ने पर इस परेशानी से निपटने के लिए आपको सही परामर्श और समर्थन मिल सके। यह कहना है विशेषज्ञों का।
इंडियन एकेडमी आफ पीडिएट्रिक (आईएपी) की ओर से डाउन सिंड्रोम विद अस नाॅट फाॅर अस कार्यशाला उजाला सिग्नस रेनबो हाॅस्पिटल और रेनबो आईवीएफ के विशेषज्ञों के साथ की गई। इसमें गर्भधारण से पहले और गर्भधारण के दौरान जेनेटिक काउंसलिंग की आवश्यकता पर जोर दिया गया। आईएपी के अध्यक्ष डाॅ. अरूण जैन ने बताया कि भारत में हर साल तकरीबन 800 में से एक बच्चा इस बीमारी के साथ पैदा होता है। भारत में सबसे अधिक 25000 बच्चे हर साल डाउन सिंड्रोम के साथ जन्म लेते हैं।
रेनबो आईवीएफ कीं निदेशक डाॅ. जयदीप मल्होत्रा ने कहा कि बच्चे के जन्म से पूर्व जेनेटिक काउंसलिंग कराना उन दंपतियों के बीच लोकप्रिय हो रहा है जो गर्भधारण के लिए या गर्भधारण से पहले भी आनुवांशिक बीमारियों की जांच कराना चाहते हैं, लेकिन अब भी इसे तेजी से प्रसार की जरूरत है, क्योंकि बहुत से दंपति चिकित्सक की सलाह के बावजूद जेनेटिक काउंसलिंग और सुझाई गई जांचें नहीं कराते, जबकि कईयों के नजदीक यह आसानी से उपलब्ध नहीं होतीं और कई इनके लिए आवश्यक समय सीमा को पार कर जाते हैं।
आईएपी के उपाध्यक्ष डाॅ. संजीव अग्रवाल ने बताया कि कम उम्र गर्भवती होने वाली महिलाओं की तुलना में यह समस्या 35 या उससे अधिक में गर्भवती होने पर अधिक होती है। कोषाध्यक्ष डाॅ. विनय मित्तल ने बताया कि ऐसे बच्चों का बौद्धिक स्तर सामान्य बच्चों की तुलना में काफी कम होता है।
साइंटिफिक सचिव डाॅ. अतुल बंसल ने बताया कि अगर समय रहते इसका पता कर लिया जाए तो कई तरह से मदद की जा सकती है। डाॅ. विशाल गुप्ता ने जेनेटिक काउंसलिंग और जांचों पर जोर दिया। डाॅ. राहुल गुप्ता ने अल्ट्रासाउंड स्क्रीनिंग से संभावना पता करने के बारे में बताया।
इस अवसर पर उजाला सिग्नस रेनबो हाॅस्पिटल के निदेशक डाॅ. नरेंद्र मल्होत्रा, डाॅ. केशव मल्होत्रा, डाॅ. मनप्रीत शर्मा, डाॅ. सेमी बंसल, डाॅ. शैली गुप्ता, डाॅ. नीरजा सचदेव, डाॅ. अनीता, डाॅ. हर्षवर्धन आदि मौजूद थे।
कौन-कौन सी जांचें ?
डाॅ. नरेंद्र मल्होत्रा ने बताया कि डाउन सिंड्रोम के लिए दो चरणों में टेस्ट किए जाते हैं। स्क्रीनिंग टेस्ट और डायग्नोस्टिक टेस्ट। डायग्नोस्टि टेस्ट उन महिलाओं को कराना होता है जिनके स्क्रीनिंग टेस्ट में डाउन सिंड्रोम की संभावना होती है। डायग्नोस्टिक टेस्ट यानि कोरियोनिक विलस सैंपलिंग (सीवीएस) और एमनियोसेंटेसिस से सटीक जवाब मिल जाता है। अच्छे केंद्रों पर अलग अलग टेस्ट उपलब्ध हैं। कुछ 13 सप्ताह की गर्भावस्था में तो कुछ 20 सप्ताह की प्रेग्नेंसी तक कराए जाते हैं। स्क्रीनिंग टेस्ट में अल्ट्रासाउंड या खून की जांच या दोनों जांचें शामिल हैं वहीं 11 से 13 सप्ताह की गर्भावस्था के बीच न्यूकल ट्रांसल्यूसेंसी एनटी स्कैन कराया जाता है। इसके अलावा खून की जांच भी होती है जिसे डबल मार्कर कहा जाता है। एनआईपीटी एक अतिरिक्त स्क्रीनिंग टेस्ट है जो शिशु में डाउन सिंड्रोम, एडवर्डस सिंड्रोम और पटाउ सिंड्रोम होने के खतरे के बारे में बताता है। यह काफी सटीक है और 10 सप्ताह तक कराया जाता है।
आईवीएफ की यह तकनीक डाउन सिंड्रोम का पता लगाने में मददगार
एंब्रियोलाॅजिस्ट डाॅ. केशव मल्होत्रा ने बताया कि प्री इंप्लांटिंग जेनेटिक टेस्टिंग (पीजीटी) महिला के गर्भाशय में भ्रूण स्थानांतरण से पहले, आईवीएफ प्रक्रिया के दौरान भ्रूण में असामान्यताओं का पता लगाने के लिए प्रसवपूर्व निदान का एक प्रारंभिक रूप है। भ्रूण की आनुवांशिक संरचना का विश्लेषण करने को पूर्व प्रत्यारोपण आनुवांशिक परीक्षण कहा जाता है। आईवीएफ इलाज में उपयोग की जाने वाली इस पद्धति की मदद गायनेकोलाॅजिस्ट की सलाह पर डाउन सिंड्रोम का पता लगाने में ली जा सकती है।