सुमित गर्ग…..
भौतिकता की दौड़ में आज हम अपनी संस्कृति को भी भूलते जा रहे हैं। लैपटॉप व मोबाइल के आधुनिक युग में पुरानी संस्कृति टेसू-झांझी अब विलुप्त होने के कगार पर है। अब न तो बच्चों में पहले जैसा उत्साह रहा है और न ही बाजारों में पहले जैसी टेसू-झांझी की बिक्री होती दिखती है।
आगरा– रावण दहन के साथ ही घर-घर टेसू-झांझी के पूजन का दौर शुरू हो जाएगा। इस परंपरा का निर्वहन बच्चे करते है। जगह-जगह टेसू-झांझी सजे नजर आ रहे है।
मेरा टेसू यहीं अड़ा, खाने को मांगे दही-बड़ा, दही-बड़ा बहुतेरा, खाने को मुंह टेढ़ा। बचपन की यादों में शुमार टेसू-झांझी उत्सव की यह पंक्तियां अब विलुप्त होने लगी हैं। दशहरा से कार्तिक पूर्णिमा तक चलने वाले इस उत्सव से नए पीढ़ी के बच्चे अनजान हैं। महाभारत कालीन टेसू और झांझी का यह उत्सव ब्रज से लेकर बुंदेलखंड तक में खासा लोकप्रिय रहा है। एक दशक पहले हर साल जब शहर की गलियों में जब छोटे बच्चे और बच्चियां टेसू-झांझी लेकर घर-घर निकलते थे, गाना गाकर चंदा मांगते थे तो कोई एक परिवार झांझी के लिए जनाती और दूसरा परिवार टेसू की तरफ से बराती होता था। कुछ इलाकों में शरद पूर्णिमा के दिन बड़े स्तर पर आयोजन होते थे।
झांझी की मोहल्ला स्तर पर शोभायात्रा भी निकलती थी तो वहीं दशहरा पर रावण दहन के साथ ही बच्चे टेसू लेकर द्वार-द्वार टेसू के गीतों के साथ नेग मांगते हैं, वहीं लड़कियों की टोली घर के आसपास झांझी के साथ नेग मांगने निकलती थी।
अद्भुत है टेसू – झेंझीं की लोक कथा
यह तो किसी को नहीं मालूम कि टेसू और झेंझीं के विवाह की लोक परंपरा कब से पड़ी पर यह अनोखी, लोकरंजक और अद्भुद है। यह परंपरा बृजभूमि को अलग पहचान दिलाती है जो बृजभूमि से सारे उत्तर प्रदेश और मध्यप्रदेश के बुंदेलखंड तक गांव गांव तक पहुंच गई थी। जो अब आधुनिकता के चक्कर में और बड़े होने के भ्रम में भुला दी गई है।
इतिहास के पन्नों पर नजर डालें तो पता चलता है कि यह परंपरा महाभारत के बीत जाने के बाद प्रारम्भ हुई क्योंकि यह लोकजीवन में प्रेम कहानी के रूप में प्रचारित हुई थी। इसलिए यह इस समाज की सरलता और महानता प्रदर्शित करती है। एक ऐसी प्रेम कहानी जो युद्ध के दुखद पृष्ठभूमि में परवान चढ़ने से पहले ही मिटा दी गई। यह महा पराक्रमी भीम के पौत्र और घटोत्कच के पुत्र बर्बरीक की कहानी है जो टेसू के रूप में मनाई जाती है।
सब मिल कर गाते थे गाना
टेसू और झांझी का इतिहास बहुत पुराना है। अच्छी तरह से याद है कि बचपन में अपने मोहल्ले से चंदा एकत्रित करते थे। लड़के टेसू और लड़कियां झांझी लेकर चलती थीं। सब मिल कर गाना गाते थे। दीपक भी प्रज्जवलित करते थे।
डॉ. हरेन्द्र गुप्ता, कमलानगर- आगरा
हर बच्चे की अलग जिम्मेदारी
हर बच्चे की अलग जिम्मेदारी होती थी। किसी को दीपक के तेल, लौ का इंतजाम करना होता था तो किसी के पास चंदा लाने की। घर के पास के मंदिर की सजावट सब मिल कर करते थे। मोहल्ले के बड़ों का भी साथ होता था।
श्रीमती ममता गर्ग, खेरागढ़-आगरा
अपने पर्वो को भूल रहे हैं हम
आज लोग टेसू तथा टेसू पर्व को भूलते जा रहे हैं। लोकपर्व टेसू एकता का प्रतीक हाई, जिसमें गरीब, अमीर, ऊँच-नीच का भेद भुलाकर सभी लोग शामिल होते थे, किंतु इलेट्रॉनिक मीडिया, चैनलों की चकाचौंध व बढ़ती आपाधापी के कारण टेसू पर्व समाप्त होता जा रहा है, इसे नए संदर्भों में पुनर्जीवित करने की आवश्यकता है।
श्रीमती कृष्णा गर्ग ,खेरागढ़-आगरा
विलुप्त होते टेसू-झाँझी
आधुनिकता ने टेसू – झांझी की संस्कृति लगभग समाप्त ही कर दी है। वह दिन दूर नहीं जब टेसू – झांझी सिर्फ कहानी बनकर रह जाएंगे।
इंजी. कुनाल गर्ग,फरह- मथुरा
पर्व सिर्फ देहात में ही बचे हैं
अब बच्चे कंप्यूटर, वीडियो गेम, मोबाइल में व्यस्त रहते हैं। टेसू और झांझी और इनके गीत अब सिर्फ देहात क्षेत्र में ही कहीं-कहीं नजर आते हैं, वह भी चुनिंदा बच्चों के समूह में।
श्रीमती ममता गोयल पूर्व सभासद,खेरागढ़-आगरा