गीता में कहा गया है न तो यह शरीर तुम्हारा है और न ही तुम इस शरीर के हो, और एक दिन यह शरीर पंच तत्वों में विलीन हो जाएगा” इसका रहस्यमयी तथ्य क्या है- पं० प्रमोद गौतम
आगरा: वैदिक सूत्रम चेयरमैन पं० प्रमोद गौतम ने 8A टैगोर नगर दयालबाग आगरा स्थित अपने कैम्प कार्यालय पर वैदिक सूत्रम रिसर्च संस्था की संस्थापिका योग-गुरु स्व दिनेशवती गौतम की पितृ पक्ष में श्राद्ध पक्ष में पड़ने वाली उनकी त्रयोदशी तिथि पर ब्राह्मण महिलाओं को श्राद्ध पर्व पर भोजन एवम वस्त्र भेंट करने के बाद उन्हें हार्दिक श्रदांजलि अर्पित करते हुए कहा कि वेद-पुराण और धार्मिक ग्रन्थ गीता के अनुसार अनुसार आत्मा अजर-अमर है। आत्मा एक शरीर धारण कर जन्म और मृत्यु के बीच नए जीवन का उपभोग करती है और पुन: शरीर के जीर्ण होने पर शरीर छोड़कर चली जाती है। आत्मा का यह जीवन चक्र तब तक चलता रहता है जब तक कि वह पूर्ण रूप से मुक्त नहीं हो जाती या उसे जब तक वास्तविक मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो जाती।
पंडित गौतम ने बताया कि इस भौतिक मायावी संसार में प्रत्येक व्यक्ति, पशु, पक्षी, जीव, जंतु आदि सभी के अंदर आत्मा मौजूद होती है। खुद को यह समझना कि मैं शरीर नहीं एक आत्मा हूं। यह आत्मज्ञान के मार्ग पर रखा गया पहला कदम है। धार्मिक ग्रंथों के आधार पर आत्मा के तीन स्वरूप माने गए हैं-जीवात्मा, प्रेतात्मा और सूक्ष्मात्मा। जो भौतिक शरीर में वास करती है उसे जीवात्मा कहते हैं। जब इस जीवात्मा का वासना और कामनामय शरीर में निवास होता है तब उसे प्रेतात्मा कहते हैं। जब यह आत्मा सूक्ष्मतम शरीर में प्रवेश करती है,उसे सूक्ष्मात्मा कहते हैं।
उन्होंने बताया कि इस जगत में 84 लाख योनियां होती हैं जिसमें पशु योनि, पक्षी योनि, मनुष्य योनि में जीवन-यापन करने वाली आत्माएं मरने के बाद अदृश्य भूत-प्रेत योनि में चली जाती हैं। आत्मा के प्रत्येक जन्म द्वारा प्राप्त जीव रूप को योनि कहते हैं। ऐसी 84 लाख योनियां हैं, जिसमें कीट-पतंगे, पशु-पक्षी, वृक्ष और मानव आदि सभी शामिल हैं। हिन्दू धर्म की मान्यता के अनुसार जीवात्मा 84 लाख योनियों में भटकने के बाद मनुष्य जन्म पाती है। 84 लाख योनियां निम्नानुसार मानी गई हैं- पेड़-पौधे- 30 लाख, कीड़े-मकौड़े- 27 लाख, पक्षी- 14 लाख, पानी के जीव-जंतु- 9 लाख, देवता, मनुष्य, पशु- 4 लाख, कुल योनियां- 84 लाख। हमारा भौतिक शरीर साधारणत: वृद्धावस्था में जीर्ण होने पर नष्ट होता है, परंतु बीच में ही कोई आकस्मिक कारण उपस्थित हो जाए तब अल्पायु में ही हमें अपने भौतिक शरीर को त्यागना पड़ता है। जब मनुष्य मरने को होता है, तो उसकी समस्त बाहरी शक्तियां एकत्रित होकर अंतरमुखी हो जाती हैं और फिर आत्मा स्थूल शरीर से बाहर निकल पड़ती है। इस मायावी संसार में मुख, नाक, आंख, कान हमारे भौतिक शरीर से प्राण उत्सर्जन के प्रमुख मार्ग हैं। दुष्ट-वृत्ति के लोगों के प्राण मल-मूत्रों के मार्ग से निकलते देखे गए हैं। योगी और सत्कर्म में रत आत्मा ब्रह्म-रन्ध्र से प्राण त्याग करती है। मृतात्मा स्थूल शरीर से अलग होने पर सूक्ष्म शरीर में प्रविष्ट कर जाती है। यह सूक्ष्म शरीर ठीक स्थूल शरीर की ही बनावट का होता है, जो दिखाई नहीं देता। खुद मृतात्मा को भी इस शरीर के होने की बस अनुभूति होती है लेकिन कुछ आत्माएं ही इस शरीर को देख पाती हैं। इस दौरान मृतक को बड़ा आश्चर्य लगता है कि मेरा शरीर कितना हल्का हो गया है और मैं हवा में पक्षियों की तरह उड़ सकता हूं। स्थूल शरीर छोड़ने के बाद आत्मा अपने मृत शरीर के आसपास ही मंडराती रहती है। उसके शरीर के आसपास एकत्रित लोगों से वह कुछ कहना चाहती है लेकिन कोई उसकी सुनता नहीं है।
पं० गौतम ने बताया कि इस मायावी संसार में भौतिक शरीर से अलग होने के बाद मृत आत्मा खुद को मृत नहीं मानकर अजीब तरीक़े से व्यवहार भी करती है। वह अपने अंग-प्रत्यंगों को हिलाती-डुलाती है, हाथ-पैर को चलाती है, पर उसे ऐसा अनुभव नहीं होता कि वह मर चुकी है। उसे लगता है कि शायद यह स्वप्न चल रहा है लेकिन उसका भ्रम मिट जाता है तब वह पुन: मृत शरीर में घुसने का प्रयास करती है लेकिन वह उसमें सफल नहीं हो पाती है। जब तक मृत शरीर की अंत्येष्टि क्रिया होती है, तब तक जीव बार-बार उसके शरीर के पास मंडराता रहता है। जला देने पर वह उसी समय निराश होकर दूसरी ओर मन को लगाने लग जाता है, किंतु गाड़ देने पर वह उस शरीर का मोह नहीं छोड़ पाता और बहुत दिनों तक उसके इधर-उधर फिरा करता है। अधिक माया-मोह के बंधन में अधिक दृढ़ता से बंधे हुए मृतक प्राय: श्मशानों में बहुत दिनों तक चक्कर काटते रहते हैं। शरीर की ममता बार-बार उधर खींचती है और वे अपने को सम्भालने में असमर्थ होने के कारण उसी के आस-पास रुदन करते रहते हैं। कई ऐसे होते हैं जो शरीर की अपेक्षा प्रियजनों से अधिक मोह करते हैं। वे मरघटों के स्थान पर प्रिय व्यक्तियों के निकट रहने का प्रयत्न करते हैं। इस मामले में उनकी धारणा कार्य करती है कि वह किस तरह की धारणा और विश्वास लेकर मरे हैं।
पं० गौतम ने बताया कि पुराणों के अनुसार जब भी कोई मनुष्य मरता है या आत्मा शरीर को त्यागकर अपनी आगे की यात्रा प्रारंभ करती है तो इस दौरान उसे तीन प्रकार के मार्ग मिलते हैं। उस आत्मा को किस मार्ग पर चलाया जाएगा यह केवल उसके कर्मों पर निर्भर करता है। ये तीन मार्ग हैं- अर्चि मार्ग, धूम मार्ग और उत्पत्ति-विनाश मार्ग, अर्चि मार्ग ब्रह्मलोक और देवलोक की यात्रा के लिए होता है, वहीं धूममार्ग पितृलोक की यात्रा पर ले जाता है और उत्पत्ति-विनाश मार्ग नर्क की यात्रा के लिए है। हालांकि सभी मार्ग से गई आत्माओं को कुछ काल भिन्न-भिन्न लोक में रहने के बाद पुन: मृत्युलोक में आना पड़ता है। अधिकतर आत्माओं को यहीं जन्म लेना और यहीं मरकर पुन: जन्म लेना होता है।
उन्होंने बताया कि यजुर्वेद में कहा गया है कि शरीर छोड़ने के पश्चात, जिन्होंने तप-ध्यान किया है वे ब्रह्मलोक चले जाते हैं अर्थात ब्रह्मलीन हो जाते हैं। कुछ सत्कर्म करने वाले भक्तजन स्वर्ग चले जाते हैं अर्थात स्वर्ग में वे देव बन जाते हैं। राक्षसी कर्म करने वाले कुछ प्रेत योनि में अनंत काल तक भटकते रहते हैं और कुछ पुन: धरती पर जन्म ले लेते हैं। जन्म लेने वालों में भी यह जरूरी नहीं है कि वे मनुष्य योनि में ही जन्म लें। इससे पूर्व ये सभी पितृलोक में रहते हैं वहीं उनका न्याय होता है। सामान्यजनों ने देह त्यागी है तो इस मामले में उनकी धारणा कार्य करती है कि वे किस तरह की धारणा और विश्वास लेकर मरे हैं तब वे उसी अनुसार गति करते हैं। जैसे बचपन से यह धारणा मजबूत है कि मरने के बाद कोई यमदूत लेने आएंगे तो उसे सच में ही यमदूत नजर आते हैं, लेकिन जिनको यह विश्वास दिलाया गया है कि मरने के बाद व्यक्ति गहरी नींद में चला जाता है तो ऐसे लोग सच में ही नींद में चले जाते हैं।
पं० गौतम ने बताया कि पौराणिक शास्त्रों के अनुसार हमारे शरीर में स्थित है सात प्रकार के चक्र। ये सातों चक्र हमारे सात प्रकार के शरीर से जुड़े हुए हैं। सात शरीरों में से प्रमुख हैं तीन शरीर-भौतिक, सूक्ष्म और कारण। भौतिक शरीर लाल रक्त से सना है जिसमें लाल रंग की अधिकता है। सूक्ष्म शरीर सूर्य के पीले प्रकाश की तरह है और कारण शरीर नीला रंग लिए हुए है, कुछ ज्ञानीजन मानते हैं कि नीला रंग आज्ञा चक्र का एवं आत्मा का रंग है। नीले रंग के प्रकाश के रूप में आत्मा ही दिखाई पड़ती है और पीले रंग का प्रकाश आत्मा की उपस्थिति को सूचित करता है। ‘पाश्चात्य योगियों का मत है कि जीव का सूक्ष्म शरीर बैंगनी रंग की छाया लिए शरीर से बाहर निकलता है। भारतीय योगी इसका रंग ज्योति-स्वरूप सफेद मानते हैं।’
उन्होंने बताया कि प्रत्येक वर्ष भाद्रपद की पूर्णिमा एवं आश्विन मास की कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा से अमावस्या तक का समय पितृ पक्ष कहलाता है। इस पक्ष में मृत पूर्वजों का श्राद्ध किया जाता है। पितृ पक्ष में पितरों की मरण-तिथि को ही उनका श्राद्ध किया जाता है। सर्वपितृ अमावस्या को कुल के उन लोगों का श्राद्ध किया जाता हैं जिन्हें हम नहीं जानते हैं अर्थात ज्ञात और अज्ञात सभी पितरों का श्राद्ध किया जाता है। कुल मिलाकर उपरोक्त रहस्यमयी तथ्यों के आधार पर हम यह समझ सकते हैं कि अपनी इच्छा से शरीर त्यागना आसान है लेकिन इच्छा से शरीर धारण करना मुश्किल है। फिर भी जो व्यक्ति इस भौतिक मायावी संसार में अपनी इच्छा से शरीर छोड़ना सीख जाता है वह इच्छानुसार जन्म भी ले सकता है। इच्छा-मृत्यु शब्द का सर्वप्रथम उल्लेख महाभारत में मिलता है जिसका अर्थ अपनी मर्जी से मृत्यु का वरण यानी शरीर का त्याग कर देना। भीष्म पितामह ने तीरों की सेज पर लेटकर अपनी इच्छा से मौत को बुलाया था। शास्त्रों के अनुसार जीव स्वयं अपनी इच्छा, भाव और कर्म से संस्कारों के वशीभूत होकर जन्म ग्रहण करता है। लेकिन यह इच्छा भाव उसके जीवन-पर्यंत किए गए कर्म और भोगे गए दुख-सुख से उपजते हैं जिसका उसे भी ज्ञान नहीं होता। ये बीज रूप में मृत्य के साथ चले जाते हैं और व्यक्ति फिर वहीं जन्म लेता है जैसे कि उसका पिछला जन्म निर्धारित करता है। इसे समझना बहुत आसान है यह बिल्कुल गणित के प्रश्न जैसा है जिसे हल किया जा सकता है। अधिकतर लोग प्रकृति के इसी नियम से बंधे रहकर जन्म लेते हैं। लेकिन बहुत कम ही लोग हैं, जो जन्म लेने का स्थान चयन करके ही जन्म लेते हैं। शंकराचार्य को परकाया प्रवेश सिद्धि प्राप्त थी। ऐसा दिव्य व्यक्ति ही अपनी इच्छा से कहीं पर भी जन्म ले सकता है। किसी के भी गर्भ में प्रवेश कर सकता है।