आगरा, मैं समय का पहिया हूँ, जो निरंतर घूमता रहता है। मेरी धूल में तमाम भूतकाल की बातें, भविष्य की कल्पनाएं और वर्तमान के विचार समा जाते हैं। आज से पितृपक्ष शुरू हो रहे हैं, जो हमारे पितरों को तर्पण देने और उनकी आत्मा की शांति व शुद्धि के लिए एक अत्यंत महत्वपूर्ण काल माना जाता है। कहीं ऐसा न हो कि मेरे इस समय-चक्र में रहते हुए यह पितृपक्ष भी गर्भ में समा जाए।
हर वर्ष 15 दिन के लिए आने वाले पितृपक्ष में हम सभी अपने पितरों को न केवल याद करते हैं, बल्कि उनकी आत्मा की मुक्ति और शांति के लिए भोजन (तर्पण) भी कराते हैं। सनातन धर्म में कहा गया है कि शरीर नश्वर है, लेकिन आत्मा अजर-अमर है। हम इस समय में उनके द्वारा दी गई शिक्षा, त्याग और समर्पण को फिर से याद करते हैं। परंतु, आज की तथाकथित शिक्षा और विज्ञान ने इन रीति-रिवाजों और परंपराओं को निभाने में लापरवाही बढ़ा दी है।
एकल परिवार और बदलती सामाजिक व्यवस्था
समाज में छोटे और एकल परिवारों का चलन बढ़ने से हमारी कई व्यवस्थाओं में बदलाव आ गया है। पहले संयुक्त परिवार होते थे और लोग आर्थिक लाभ के लिए भले ही दूर जाते थे, पर पीछे पूरा परिवार साथ रहता था। अब एकल परिवार होने के कारण आर्थिक लाभ हेतु बाहर जाने पर या तो परिवार अकेला पड़ जाता है, या उसकी कार्यक्षमता सीमित हो जाती है। यही कारण है कि तमाम बड़े-बुजुर्गों को वृद्धाश्रमों का सहारा लेना पड़ता है।
जो बच्चे दूर जाकर पैसा कमाते हैं, उनमें से कई अपने माता-पिता को भूल जाते हैं, या उनकी देखभाल करने में असमर्थ हो जाते हैं। आधुनिकता और विज्ञान की तरक्की के साथ हम इन परंपराओं को ‘ढकोसला’ मानने लगे हैं, जो पितृपक्ष जैसे महत्वपूर्ण रीति-रिवाजों को खत्म कर रहा है। ‘मैं और मेरे दो’ की सोच ने भविष्य की उन चीजों को भी नजरअंदाज कर दिया है, जो कल हमें ही प्रभावित करेंगी।
आज के युवा, जो कल वृद्ध होंगे, उनकी आत्मा की शुद्धि, शांति और उनके वृद्धावस्था में खान-पान व खुशियों का ख्याल कौन रखेगा? आज जो अपने बच्चों के लिए जी रहे हैं, कल उन्हें भी इन्हीं परिस्थितियों का सामना करना पड़ेगा।
क्या शिक्षा और धन संपन्नता का यही अर्थ है?
लज्जाजनक है ऐसी शिक्षा, विज्ञान और आर्थिक संपन्नता, जो हमें अपने परिवार को ही भुला दे। यह सही है कि रोजगार के लिए बाहर जाना और धन कमाना पड़ता है, लेकिन इसका यह अर्थ बिल्कुल नहीं कि हम अपने परिवार की सभी परंपराओं को भूल जाएं। अगर हम परंपराएं भूल सकते हैं तो मां-बाप की संपत्ति पर अपना हक भी भूल जाएं। केवल उन्हें वृद्धाश्रम भेजकर और कुछ पैसे देकर ही उनके प्रति हमारी जिम्मेदारी खत्म नहीं हो जाती।
जिस प्रकार सीमित परिवारों का चलन बढ़ रहा है, और आने वाली पीढ़ी लिव-इन रिलेशनशिप में रहने, शादी न करने या शादी के बाद भी बच्चे न करने को प्राथमिकता दे रही है, ऐसे में इन सनातनी माता-पिता का पितृपक्ष कौन मनाएगा? कौन उन्हें याद करेगा?
आज भी कई परिवार पूरी श्रद्धा से पितृपक्ष का पालन करते हैं और अपने बच्चों को इन परंपराओं के बारे में सिखाते हैं। लेकिन बहुत से ऐसे भी हैं जो या तो इन परंपराओं को नहीं निभाते या पंडित जी को दक्षिणा देकर इस काम की इतिश्री मान लेते हैं। कुछ लोग तो वृद्धाश्रमों में जाकर एक दिन के लिए पितृपक्ष मनाते हैं।
समय-चक्र यही बताना चाहता है कि अगर हम सीमित परिवार और शादी जैसी व्यवस्था को तोड़ेंगे, तो कहीं ऐसा न हो कि यह पितृपक्ष भी समय के गर्भ में खो जाए और लोग इन 15 दिनों को भी अपने हर्षोल्लास व मांगलिक कार्यक्रमों को करने के लिए इस्तेमाल करने लगें।
राजीव गुप्ता जनस्नेही
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