आगरा । भारत के शास्त्रीय नृत्य समूचे विश्व के नृत्यों का प्रतिनिधित्व करने की क्षमता रखते हैं , भारत की कला और संस्कृति विश्वभर में अनूठी एवं अवर्णनीय है ।
राष्ट्रीय एकता और सामासिक पहचान में शास्त्रीय नृत्यों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। देश के विभिन्न भागों में प्रचलित शास्त्रीय नृत्य की पद्धतियों का अपना इतिहास और उनकी अपनी विशिष्ट स्थानीय पहचान होने के बावजूद उनका विगत में भरतीय नाट्यशास्त्र से जुड़ा होना और उससे जीवन-रस ग्रहण करना वह बिंदु है जो हमारी राष्ट्रीय और सांस्कृतिक एकता को संबल प्रदान करता है, उसे दृढ़ करता है. यह सांस्कृतिक एकता हमारी राष्ट्रीय साझेदारी का सेतु बनती है और हमें राष्ट्रीय पहचान देती है. इस अर्थ में स्वतंत्रता के बाद राष्ट्रीय-सांस्कृतिक फलक पर भरत के योगदान का आकलन होना अभी बाक़ी है।
एक और पक्ष है. हमारे सारे शास्त्रीय नृत्य प्राचीन मिथकों से सामग्री लेकर उनका पुनर्सृजन करते हैं, और ये मिथक पूरे देश की साझी विरासत हैं. मैं कोची की रंगशाला में बैठा एक प्रसिद्ध दक्षिणभारतीय नृत्यांगना की प्रस्तुति देख रहा था. पहली नृत्य नाटिका कृष्ण की बाललीला पर थी. यशोदा और बालक कृष्ण दोनों भूमिकाओं में रह-रहकर उनका अंतरण हो रहा था. शरारती कृष्ण अपने प्रकृत नटखटपन को बालसुलभ भोलेपन के आवरण से ढकते हैं और यशोदा अपने सहज वात्सल्य को कृत्रिम रोष से. वह पल-पल यशोदा और कृष्ण की भूमिकाएँ बदल रही थीं और उसी के साथ उनके चेहरे का भाव-परिवर्तन हो रहा था. यह नाटक में नाटक था. कृष्ण भोले बनने का नाटक कर रहे थे, जिसमें उनका दबा हुआ नटखटपन झलकता था. और नृत्यांगना कृष्ण के उस नाटक का नाटक कर रही थी किंतु इतनी कुशलता से कि कृष्ण का नाटक भी भासित हो जाए. इसी तरह यशोदा के रोष का नाटक करते हुए उनका वात्सल्य भी झलक पड़ता था. मैं सोच रहा था, यह कैसे होता होगा. बस आँखों और ओठों की भंगिमा से तो बात बनती नहीं. फिर समझ में आया कि यह तो अंत:करण की गहन संवेदना से संभव होता होगा, जो स्वत: चेहरे का भाव बदल देती है. वही संचारी भावों और सात्विक भावों का खेल।
अगली नाटिका चीर-हरण की थी जिसमें यमुना में नग्न नहाती गोपियों को अपने वस्त्रों के लिए कृष्ण से याचना करते हुए देर तक झिझकने-शरमाने के बाद वैसे ही पानी से बाहर आना होता है. नृत्यांगना की वरिष्ठ शिष्याएँ अन्य गोपियाँ बनी थीं. पूरे परिधान में उन्हें नग्नता के भाव का अभिनय करना था, अपने शरीर को हाथों से, बालों से, यहाँ-वहाँ से, छिपाना था, लज्जा से गड़ जाना था. कितने मनोयोग से, कितने वर्षों तक किए गए अभ्यास से वह लज्जा, वह संकोच, वह ग्लानि चेहरे पर आती होगी—सारे वस्त्र पहने हुए हैं और चेहरे पर नग्नता के भाव से गड़ी जा रही हैं. और कितनी मर्यादा और श्लीलता से ! यदि कलाकार परिपक्व हो तो दर्शक को कहाँ से कहाँ पहुँचा देता है !
अगली नृत्य-नाटिका राधा-कृष्ण के युगल नृत्य की थी, जिसमें नृत्यांगना की युवा बेटी कृष्ण की भूमिका निभा रही थी और वे राधा की. बेटी अभी परिपक्व नहीं थी, किंतु उसकी कमी उनकी सिद्धहस्तता से छिप जा रही थी. साधनारत दो पीढ़ियाँ हमारे सामने थीं—युवा किंतु अपरिपक्व, मँजी हुई किंतु अधेड़. रूप-सज्जा से उम्र का असर काफ़ी ढक जाता है, किंतु उसकी भी एक सीमा होती है. फिर भी दर्शक भाव-विभोर. शास्त्रीय नृत्यों में एक विडंबना ज़रूर निहित है. जब तक नृत्यांगना अपनी कला में पूर्ण निष्णात होती है, उम्र और उसके साथ-साथ शरीर ढलने लगता है. इन नृत्यों में दीर्घकालीन साधना का कोई शॉर्टकट नहीं है.
तभी ध्यान आया इन मिथकों की घटना-स्थली मथुरा-वृंदावन यहाँ से कितनी दूर, रहन-सहन और सांस्कृतिक परिवेश में अन्यथा कितनी भिन्न है. और ये देश के दूसरे कोने में बैठकर उस सुदूर धरती से जुड़े मिथकों का कितना सूक्ष्म विवेचन, कितना अंतरंग पुनर्सृजन कर रही हैं, इसके लिए कितना अभ्यास किया होगा, घटनाओं से जुड़े मिथक में पर्त-दर-पर्त कितनी डूबी होंगी. वहाँ के लोगों को तो कभी भान तक न होगा. तभी मुझे कौंधा कि ये मिथक और गायन-नर्तन में उनका पुनर्सृजन हमारी सांस्कृतिक एकता को, हमारी पहचान को कितने गहरे जाकर पुख़्ता करते हैं. अवतारवाद में कितनी कल्पना है, कितना यथार्थ, पता नहीं, किंतु अवतारों और अन्य पौराणिक मिथकों ने गायन और नर्तन और मूर्तिकला और चित्रकला के लिए कितनी समृद्ध सामग्री हमें विरासत में दी है ! जिन देशों के पास यह नहीं है, वे सांस्कृतिक रूप से कितने सूखे, कितने दरिद्र होंगे, और यह सारी विरासत सामासिक है, राष्ट्रीय इकाई के घटक के रूप में हम सब की है. यही है जो हमें इतनी विविधता के बावजूद एक बनाती है, भारतीय बनाती है. विदेश जाने पर यह पक्ष ज़्यादा शिद्दत से समझ में आता है // साभार कमला कान्त त्रिपाठी ।