आगरा । दूसरों की तरक्की की नींव की बुनियाद अपने पसीने से तैयार करने वाले मजदूर की दास्तान ही कुछ अजीब है। जिस इमारत को दिनरात मेहनत कर वह तैयार करता है उस इमारत के खड़ी होते ही सबसे पहले इसी मजदूर को दुत्कार सहनी पड़ती है। इस वर्ग के लिए मज़दूर दिवस के कोई मायने नहीं हैं।
श्रमिक वर्ग के सम्मान में पहली मई को हर साल अंतरराष्ट्रीय मजदूर दिवस के रूप में मनाए जाने की परम्परा है। यह बात दीगर है कि रोज कमाने रोज खाने की शैली में गुजर बसर करने वाला मजदूर इससे कोई इत्तेफाक नहीं रखता है। कोविड 19 के लाकडाउन की सबसे बड़ी मार इसी वर्ग को पड़ी है। आज हर कामगार हाथ न केवल खाली है बल्कि उसके सामने घर का चूल्हा जलाने की चुनौती उठ खड़ी है। राजगीर का काम करने वाले धनौली निवासी राम समुझ कहते हैं कि महीनों से कोई काम नहीं मिल रहा है। घर का खर्च साहूकार की उधारी पर चलाने की मजबूरी है।
दिहाड़ी मजदूरी करने वाले प्रीतम निवासी बोड़ला कहते हैं कि लॉकडाउन में हम मजदूरों की कैसे बीत रही है यह समझने वाला कोई नही है। भगवन सिंह निवासी किरावली बताते हैं कि मनरेगा का काम भी ठप है, दिहाड़ी का काम मिल नहीं रहा है ऐसे में घर के चूल्हे जलाने की हमें चिंता है। मजदूर दिवस को हम क्या जानें। चाय की दूकान चलाने वाले मधु नगर निवासी ओम प्रकाश का कहना है कि महीनों से दूकान नहीं खुली है और कहीं कोई काम भी नहीं मिल रहा है। ऐसे में लॉक डाउन खुले तो शायद मजदूर वर्ग के चेहरे पर मुस्कान लौट आये। हमें अपने पौरुष पर यकीन है। मजदूर किसी दिवस का मोहताज नहीं हो सकता।