अभिषेक मेहरोत्रा
शहर क्या देखें कि हर मंज़र में जाले पड़ गए
ऐसी गर्मी है कि पीले फूल काले पड़ गए
राहत इंदौरी साहब का ये शेर न केवल आज के गर्म हालात पर सटीक बैठता है, बल्कि पर्यावरण में आ रहे बदलाव को भी रेखांकित करता है.
पर्यावरण एक ऐसा विषय है, जिस पर बात बहुत होती है, और शायद बात ही ज्यादा होती है. इसलिए हालात जैसे होने चाहिए थे, नहीं हैं.
निसंदेह पर्यावरण के प्रति हम जागरूक हुए हैं, लेकिन जागरूकता का स्तर ज़रूरत अनुसार नहीं है. आज भी अधिकांश लोगों को लगता है कि पौधा लगाना ही पर्यावरण संरक्षण है, जबकि ऐसा नहीं है. आप हर रोज, किसी न किसी तरीके से पर्यावरण संरक्षण में योगदान दे सकते हैं.

आगरा का नया खुला स्टोर सेकंड चांस यही तो कर रहा है. यहां सबकुछ रीसाइकल्ड है. रीसाइकलिंग पर्यावरण संरक्षण के लिए बहुत महत्वपूर्ण प्रक्रिया है. इससे प्राकृतिक संसाधनों की बचत होती है, ऊर्जा की बचत होती है और प्रदूषण भी कम होता है. क्लीन आगरा, ग्रीन आगरा के नारे को साकार करने के लिए इस तरह की पहल बेहद ज़रूरी है.
सबसे पहले तो हमें यह समझना होगा कि पर्यावरण संरक्षण हम सबकी साझा जिम्मेदारी है. आप अकेले सरकार पर सबकुछ नहीं छोड़ सकते और सरकार जनभागीदारी के बिना कुछ नहीं कर सकती. यह एक तरह का जॉइंट वेंचर है, जिसमें दोनों पक्षों को बराबर प्रयास करने होंगे, तभी लक्ष्य हासिल किया जा सकेगा. हफ़ीज़ जौनपुरी ने बहुत सुंदर बात कही है –
‘ये सब कहने की बातें हैं कि ऐसा हो नहीं सकता
मोहब्बत में जो दिल मिल जाए फिर क्या हो नहीं सकता’.
हमें बस पर्यावरण के प्रति मोहब्बत जगानी है और फिर सब कुछ अपने आप होता जाएगा. छोटे-छोटे कदम बढ़ाकर, अपनी आदतों में सुधार लाकर और सेकंड चांस जैसे इनिशिएटिव को सपोर्ट करके हम पर्यावरण के प्रति अपनी जिम्मेदारी निभा सकते हैं.
पोलीथीन पर बैन है, लेकिन उसके बावूजद बाजार में धड़ल्ले से इस्तेमाल होती है. क्यों? अधिकांश लोगों का जवाब होगा, क्योंकि सरकार-प्रशासन प्रतिबन्ध पर अमल में नाकाम रहे हैं. चलिए इसे सही मान भी लें, तो क्या आपने अपनी जिम्मेदारी निभाई? यदि हम पोलीथीन इस्तेमाल ही नहीं करेंगे, तो भी क्या उसका उत्पादन होता रहेगा? इसमें कोई दोराय नहीं है कि बड़े उद्देश्यों को प्राप्त करने में नीति निर्माता की जिम्मेदारी अधिक होती है, लेकिन इससे हमारी जिम्मेदारी कम नहीं हो जाती. सेकंड चांस स्टोर पर आपको रीसाइकल्ड बैग मिल जाएंगे, जाइए उन्हें खरीदिये और पर्यावरण के प्रति अपनी जिम्मेदारी निभाने की शुरुआत कीजिये. एक तरह से ये समझिए कि पर्यावरण बचाना अब हम सबका प्रथम कर्तव्य है इसलिए सेकंड चांस को जीवन का फर्स्ट चांस समझ इस ओर जुट जाइए।
सरकार को भी अब इस मुद्दे पर आउट ऑफ द बॉक्स सोचने की ज़रूरत है. कई देशों में ‘निर्माता की जिम्मेदारी’ निर्धारित है. अपने उत्पाद बेचने के बाद उनके रैपर कलेक्ट करना निर्माता की जिम्मेदारी के तहत आता है, हमारे देश में भी यह व्यवस्था लागू होनी चाहिए. कुछ कंपनियां स्वेच्छा से ऐसा कर रही हैं. इस तरह वे प्लास्टिक कचरे को कम करने और पर्यावरण के प्रति अपनी प्रतिबद्धता दिखाने का प्रयास कर रही हैं. इन कंपनियों द्वारा अपने खाली रैपर को रिसाइकल करने के लिए विशेष अभियान चलाया जाता है. लेकिन इस प्रक्रिया पर अनिवार्य का टैग लगाना ज़रूरी है. अगर ‘निर्माता की जिम्मेदारी’ के तहत इसे अनिवार्य बनाया जाता है, तो जगह-जगह बिखरे पड़े रहने वाली प्लास्टिक में कमी लाई जा सकती है. ये प्लास्टिक पर्यावरण का दम घोंट रही है.
इसके अलावा, मुझे लगता है कि अब पेड़ों की कटाई को लेकर नियमों में भी बदलाव की ज़रूरत है. कई बार अच्छे के लिए बनाए गए नियम भी मुश्किलों की वजह बन जाते हैं और इस मामले में भी यही हो रहा है. पेड़ चाहे घर के अंदर हो या बाहर, उसकी ज़रूरतों से ज्यादा फैलती टहनियों पर कैंची चलाने के लिए भी अनुमति लेनी होती है. इस अनुमति के झंझट के चलते लोगों ने ऐसे पौधे लगाने बंद या कम कर दिए हैं, जो पेड़ बनकर पर्यावरण संरक्षण का हिस्सा बनते. पहले घर के आसपास, गांव, सड़क किनारे आसमान छूते पेड़ होते थे. गुलदार, पीपल, नीम बरगद जैसे पेड़ नजर आना आम था, लेकिन अब इन्हें खोजना पड़ता है.
पेड़ों का काम पर्यावरण संरक्षण से कहीं ज्यादा है. लकड़ी का एक पूरा उद्योग है और इस उद्योग का भविष्य पेड़ों पर टिका हुआ है. पहले इस उद्योग से जुड़े व्यवसायी अपनी निजी जमीनों पर जंगल बसाने को प्रेरित होते थे, ताकि ज़रूरत के हिसाब से पेड़ों को काटकर काम में लाया जा सके. लेकिन कटाई पर रोक और अनुमति के झंझट ने उन्हें इससे दूर कर दिया है. ऐसा भी नहीं है कि पेड़ों की कटाई पर रोक से पेड़ कटना पूरी तरह बंद हो गए हैं. अवैध कटाई बदस्तूर जारी है. लिहाजा, अब समय आ गया है कि पूरी व्यवस्था में बदलाव किया जाए.
सरकार को पेड़ों की खेती पर जोर देना चाहिए और लोगों को इसके लिए प्रोत्साहित करना चाहिए. उदाहरण के तौर पर पेड़ों की खेती पर सब्सिडी जैसे उपायों से इसमें मदद मिल सकती है. सार्वजनिक स्थानों पर लगे पेड़ों को काटने पर प्रतिबन्ध भले ही लागू रहें, लेकिन प्राइवेट जमीन पर लगे पेड़ों की कटाई को इस प्रतिबन्ध से आजाद किया जा सकता है. इसके लिए अगल नियमावली तैयार की जा सकती है. इसके तहत पेड़ों को काटने की अनुमति केवल उसी सूरत में मिले, जब उतने ही अनुपात में पौधे पेड़ बनने की स्थिति में पहुंच जाएं. इसके कई फायदे होंगे. ग्रीन कवर में इजाफा होगा. पेड़ों के कटने के दुष्प्रभाव नहीं होंगे, क्योंकि जितने पेड़ कटेंगे, लगभग उतने ही उपलब्ध हो जाएंगे. इससे पर्यावरण संरक्षण में मदद मिलेगी और लकड़ी पर आश्रित कारोबारियों के कारखाने भी चलते रहेंगे. जब कारखाने जीवित रहेंगे, तो मजदूरों के पेट भी भरेंगे.
गोपालदास नीरज जी ने कहा है –
किसी शजर के सगे नहीं हैं ये चहचहाते हुए परिंदे
तभी तलक ये करें बसेरा दरख़्त जब तक हरा भरा है.
तो, अपने दरख़्त को हरा-भरा करने के लिए हम सभी को एकजुटता के साथ प्रयास करने होंगे. वरना जैसा कि मैंने ऊपर कहा कि पर्यावरण पर केवल बातें ही ज्यादा होती हैं, वही आगे भी कहने को विवश होना होगा.
