भारतीय रसोई की मज़ेदार कहानी: धुएं से लेकर डिजिटल दावत तक

Dharmender Singh Malik
6 Min Read

बृज खंडेलवाल

कई बार ऐसे बुजुर्ग मिल जाते हैं जो डींगें हांकते हुए चूल्हे की सिकी रोटी और अंगीठी पर घंटों पकती दाल की तारीफ करते नहीं अघाते ! खुद चूल्हा, अंगीठी जलाई हो, फूंकनी से धुआं उड़ाया हो तो एहसास हो उन कष्टों का जो सदियों से हमारी महिलाएं झेलती आ रही हैं। सच में गैस सिलेंडर आने के बाद ही किचेन में क्रांति आई है।

एक ज़माना था जब हमारे घरों की रसोई किसी मंदिर से कम नहीं होती थी — और रसोइया, यानी माँ, दादी या बुआ, देवी से कम नहीं! वो भोर से पहले उठतीं, लकड़ी या उपलों से चूल्हा जलातीं, आँखों में धुआँ और दिल में श्रद्धा। दीवार पर रखे देवी-देवता रोज़ाना का प्रसाद पाते — और बाकी हम। खाना सादा होता — दाल-रोटी या आलू का झोल, और साथ में अचार, ताकि ज़िंदगी में थोड़ा “मसाला” बना रहे।

पुरानी यादें रिवाइंड करती हुई, होम मेकर पद्मिनी अय्यर बताती हैं, ” उस जमाने में, रसोई एक युद्धभूमि थी — जहाँ मसाले जंग लड़ते, प्याज़ आँसू निकालते, और धुआँ सबका मेकअप बिगाड़ देता। मगर वक़्त के साथ हमारी रसोइयाँ भी इवॉल्व हुईं — धुएँ से डिजिटल तक, लकड़ी से Alexa, preheat the oven! तक। फर्क बस इतना है कि पहले आग जलाने में टाइम लगता था, अब यू ट्यूब पर रेसिपी ढूंढने में।”

See also  इस देश की महिलाएं होती हैं बेहत खूबसूरत, क्या है इनकी सुंदरता का राज़, हर कोई है इनकी सुंदरता का दीवाना

स्टोन युग से धुएँ वाले युग तक

पुराने ज़माने में रसोई का मतलब था — जंगल में आग जलाओ, जो मिला वो भूनो, और भगवान भरोसे खाओ। कोई रेसिपी नहीं, कोई टाइमर नहीं — जो जला नहीं, वही खाना।

फिर आया हमारा देसी चूल्हा — मिट्टी का चमत्कार, जिसमें जलती थी लकड़ी, कोयला या गाय के उपले (हाँ, वही जो आप सोच रहे हैं)। आग जलाना एक तपस्या थी — इतना फूँक मारो कि फेफड़े भट्ठी बन जाएँ। मगर खाने का स्वाद ऐसा कि धुएँ का हर कण क्षमा योग्य लगे।

और अंगीठी? सर्दियों में पैर गरम करने वाली और सूप बनाने वाली वही पुरानी जादुई डिब्बी।

मुग़ल दौर: जब तंदूर ने किया तिलिस्म पैदा

Chef माही कहती हैं, “मुग़लों ने हमारी रसोई में ताजगी की नई खुशबू लाई — तंदूर। मिट्टी के गड्ढे में जलती आग, दीवारों पर चिपकती नान, और सींखों पर सुलगते कबाब — खाना नहीं, एक शायरी।

बादशाहों की रसोई बनी शाही महफ़िल, और आम आदमी की बनी धुएँ की डायरी। रसोइया सिर से पाँव तक कालिख में लिपटा रहता — सच्चा “ब्लैक ब्यूटी”!”

अंग्रेजों के जमाने में: मिट्टी के चूल्हे से मिट्टी के तेल तक

फिर आए अंग्रेज़, और साथ लाए केरोसिन स्टोव — आधुनिकता की पहली “बदबूदार” निशानी। अब लकड़ी ढूँढने की ज़रूरत नहीं थी, बस बात ये थी कि स्टोव कब फटेगा।

See also  आपकी चाय आपको कैंसर का मरीज बना सकती है, चाय बनाते समय लोग अक्सर करते हैं ये गलती, वैज्ञानिकों ने चेताया

याद करते हैं वेंकटेश सुब्रमनियन, “घर में हर सुबह एक नया एडवेंचर: “लौ लगी क्या?” और साथ में “चाय बनी?” चाय ने भारत को जोड़ दिया, और पेट्रोल की गंध ने सबको जगाया।”

बिजली का चमत्कार और झटकों की दास्तान

आजादी के बाद आया इलेक्ट्रिक हीटर — लाल-लाल कुण्डल, जैसे कोई एलियन उतर आया हो। कभी सब्ज़ी पकाता, कभी साड़ी जला देता। लेकिन फिर भी, मज़े से चलता रहा — क्योंकि ये धुआँ नहीं करता था।

एलपीजी सिलेंडर का स्वर्ण युग

रसोई में असली इंक़लाब लाया — LPG सिलेंडर! बस एक नॉब घुमाओ और चमत्कार देखो। अब न लकड़ी, न उपले, न धुआँ। बस डर ये कि सिलेंडर लीक न करे, कहती हैं रिटायर्ड मास्टरनी मीरा गुप्ता। “डिलीवरी वाला हमेशा आता था तब जब आप सीरियल देखने बैठें। पर रसोई अब साफ़, फेफड़े तंदुरुस्त, और पकवान झटपट। मगर टाइम वही — अब लकड़ी नहीं जलती, पर रेसिपी ढूँढने में आधा दिन जाता।”

गैस पाइपलाइन से डिजिटल किचन तक

2000 के बाद तो रसोई का चेहरा ही बदल गया। पाइपलाइन गैस, चिमनी, और मॉड्यूलर किचन — अब रसोई भी “स्टाइल स्टेटमेंट” बन गई। हवा साफ़, दीवारें चमकदार, और खाना विदेशी स्वाद वाला।

इंडक्शन चूल्हा, माइक्रोवेव, ओवन — सबकुछ टच से चलता है। खाना 2 मिनट में गरम, या 2 सेकंड में जल भी सकता है — बस आपकी किस्मत पर निर्भर।

See also  सरोगेसी: क्या कहता है नया नियम, जानें इससे जुड़ी सभी बातें

नई पीढ़ी की रसोई: इंस्टाग्राम वाली भूख

युवा ग्रहणी मुक्त कहती हैं, “अब रसोई “रसोई” नहीं, “कंटेंट स्टूडियो” है। कोई खाना बनाने से पहले तीन फोटो लेता है, फिर सोचता है “अब पकाऊँ या पोस्ट करूँ?” अब तीन वक्त का खाना नहीं — “जब मन करे तब खाना।” पापा keto, मम्मी vegan, बच्चे fusion — सबकी प्लेट अलग, मगर वक़्त वही। कोई “पाव भाजी टैको” बना रहा है, कोई “मग में बिरयानी” गरमा रहा है।”

दादी की रसोई बनाम पोती की रसोई

दादी की रसोई — एक चूल्हा, एक तवा, और दस लोगों का खाना। सिद्धांत साफ़: “जो बना है, वही खाओ।”

पोती की रसोई — ओवन, मिक्सर, एयर फ्रायर, और Alexa जो गाना भी बजाती है और टाइमर भी लगाती है।

दादी हँसकर कहतीं,

“बेटा, मैं एक चूल्हे में दस का पेट भरती थी। तू तीन घंटे में दो लोगों का avocado toast बना कर थक जाती है!”

नतीजा: टेक्नॉलॉजी बदली, टाइम नहीं

आज हमारी रसोईयाँ hi-tech हैं — धुआँ गया, मगर कन्फ्यूज़न बाकी है। अब firewood नहीं, Wi-Fi चाहिए। Allergy नहीं, algorithm है। और सबसे बड़ा सवाल आज भी वही:

“खाने में क्या बना है?”

See also  IPL जीत: हनुमानगढ़ी दर्शन और नीम करोली बाबा का आशीर्वाद - क्या विराट कोहली की तक़दीर अध्यात्म ने बदली?
Share This Article
Editor in Chief of Agra Bharat Hindi Dainik Newspaper
Leave a Comment

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Advertisement