आगरा: हाल ही में कुछ सनसनीखेज आपराधिक मामलों, खासकर महिलाओं द्वारा किए गए अपराधों को लेकर मीडिया में एक खास नैरेटिव गढ़ा जा रहा है, जैसे कि “औरतें अब डराने लगी हैं” या “नई पीढ़ी की महिला भूतनी बन रही हैं।” मेघालय और बेंगलुरु जैसी घटनाओं ने इस बहस को और तेज कर दिया है। लेकिन क्या वाकई ऐसा हो रहा है, या यह सिर्फ सदियों के अन्याय के खिलाफ उठ रही महिलाओं की आवाज को दबाने की एक कोशिश है?
आंकड़े कुछ और कहते हैं, हेडलाइन्स कुछ और
पुरुष प्रधान मीडिया और समाज का एक वर्ग भारत में महिलाओं की आज़ादी और बराबरी की लड़ाई को हाल के कुछ सनसनीखेज मामलों से जोड़कर बदनाम करने की कोशिश कर रहा है। खासकर ऐसे मामले, जहां महिलाओं ने पतियों के साथ क्रूरता की या हत्या जैसा कोई चरम कदम उठाया, उन्हें इस तरह पेश किया जा रहा है जैसे यह कोई आम चलन बनता जा रहा हो।
हालांकि, नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो (NCRB) 2023 के आंकड़े इस नैरेटिव से कोसों दूर हैं। NCRB के अनुसार, महिलाओं द्वारा किए गए अपराध कुल अपराधों का 5% से भी कम हैं, और इनमें से हत्या जैसे मामलों की संख्या तो और भी कम है।
इसके विपरीत, महिलाओं के खिलाफ हिंसा के आंकड़े बेहद डरावने हैं:
- हर साल 4.5 लाख से ज़्यादा महिलाओं पर हिंसा के मामले दर्ज होते हैं।
- दहेज के लिए हर साल 6,700 औरतें मारी जाती हैं।
- बलात्कार, घरेलू हिंसा, एसिड अटैक और यौन उत्पीड़न जैसे अपराधों का आंकड़ा हर साल बढ़ता जा रहा है।
बेंगलुरु और यूपी के मामलों की पड़ताल: क्या थी असली वजह?
2024 के बेंगलुरु की घटना को लें, जहां एक महिला ने कथित तौर पर पति की हत्या की। मीडिया ने इसे ऐसे परोसा जैसे ‘पत्नी’ अब ‘हत्यारी’ बनने लगी है, और सोशल मीडिया पर ‘मर्दों को भी डरना चाहिए’ जैसी बहसें छिड़ गईं। लेकिन कोई यह सवाल नहीं पूछता कि इस महिला ने यह कदम क्यों उठाया? क्या वह लगातार प्रताड़ना से जूझ रही थी? क्या उसके पास कोई और विकल्प था?
इसी तरह, उत्तर प्रदेश में 2025 के एक मामले में, एक महिला ने अपने पति की हत्या की साजिश में हिस्सा लिया। जांच में सामने आया कि वह सालों से दहेज और घरेलू हिंसा का शिकार थी। क्या यह हत्या उसका पहला अपराध था, या एक लंबे सिलसिले की अंतिम चीख?
यह बगावत नहीं, अनसुनी चीखें हैं: सामाजिक कार्यकर्ताओं की राय
मैसूर की पत्रकार और सोशल एक्टिविस्ट मुक्ता गुप्ता कहती हैं, “ये घटनाएं बगावत नहीं हैं, ये वे चीखें हैं जो समाज ने वर्षों तक अनसुनी कीं। ये नारी के प्रतिरोध की आखिरी सीमा हैं, जिन्हें हमें समझने की ज़रूरत है, न कि सनसनीखेज हेडलाइंस में कैद करने की।” वह सवाल उठाती हैं, “औरतों की तरक्की से इतना डर क्यों? पढ़ी-लिखी महिलाएं अब अपने लिए सोच रही हैं, सवाल पूछ रही हैं, फैसले ले रही हैं। 2020 में महिलाओं की साक्षरता दर 70.3% थी, और शहरी भारत में 32% महिलाएं कामकाजी थीं। ये बदलाव परिवार की पुरानी संरचना और सामाजिक ताने-बाने को चुनौती दे रहे हैं।”
सामाजिक कार्यकर्ता पद्मिनी अय्यर जोड़ती हैं, “यही तो बदलाव है, जिससे कुछ लोग घबराए हुए हैं। वे हर ऐसी घटना को औरतों के ‘बिगड़ने’ का सबूत बताकर असल मुद्दों से ध्यान हटाते हैं—दहेज, बाल विवाह, कन्या भ्रूण हत्या, और लैंगिक भेदभाव।” वह 2011 की जनगणना का हवाला देती हैं, जिसमें 1.09 करोड़ बाल विवाह (ज़्यादातर लड़कियां) और एक अध्ययन के अनुसार 2000 से 2019 तक 68 लाख कन्या भ्रूण हत्या का जिक्र है।
समाज को बदलना होगा नजरिया: शिक्षाविदों की अपील
दिल्ली यूनिवर्सिटी की शिक्षाविद डॉ. मांडवी कहती हैं, “औरतों की आज़ादी के खिलाफ जो यह नफरत की मुहिम चल रही है, वह दरअसल डर की उपज है—एक बराबरी वाले समाज के आने का डर। हर महिला अपराध को एक पूरी जेंडर के खिलाफ प्रमाण मान लेना न केवल गलत है, बल्कि खतरनाक भी।”
कोयंबटूर की भारती गोपाल कृष्णन की अपील है, “हमें औरतों को खलनायिका बनाना बंद करना होगा। समझदारी से, सहानुभूति से, और तथ्यों के आधार पर सोचना होगा—तभी एक न्यायपूर्ण समाज बन पाएगा। औरतों की आवाज़, उनकी आज़ादी—इन पर शक नहीं, समर्थन होना चाहिए।”
इन हकीकतों को भुलाकर अगर कोई महिला अपराध करे तो उसे एक सामाजिक विद्रोह बना देना कहां तक जायज़ है? समाज बदल रहा है, और यह बदलाव जरूरी भी है। महिलाएं सिर्फ अपने लिए नहीं, पूरे समाज के लिए बदलाव ला रही हैं—शिक्षा में, कामकाज में, और अपने हकों की लड़ाई में। हमें यह तय करना होगा कि क्या हम महिलाओं की आवाज़ को दबाना चाहते हैं, या उनकी तकलीफों को सुनना और समझना।