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आशा बन रही निराशा! ग्रामीण स्वास्थ्य की रीढ़, सम्मान की प्यासी आशा वालंटियर्स

Dharmender Singh Malik
6 Min Read
आशा बन रही निराशा! ग्रामीण स्वास्थ्य की रीढ़, सम्मान की प्यासी आशा वालंटियर्स

बृज खंडेलवाल

पिछले माह केंद्रीय स्वास्थ मंत्री जेपी नड्डा ने राज्य सभा में आशा वालंटियर्स के महत्वपूर्ण योगदान को सराहते हुए वायदा किया कि उनका मंत्रालय वेतन सुधार की मांगों पर विचार करेगा और ज्यादा सहूलियतें मुहैया कराएगा।

सालों से ये वायदे हो रहे हैं, मगर एक्शन नहीं हो रहा है। लगभग दो दशकों से, भारत की ‘आशा’ कार्यकर्ताएँ ग्रामीण स्वास्थ्य सेवा की रीढ़ की हड्डी बनी हुई हैं, एक ऐसी फौज जो चुपचाप मगर दृढ़ता से दूरदराज के गाँवों और औपचारिक चिकित्सा सेवाओं के बीच एक सेतु का काम कर रही है।

2005 में राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन के तहत शुरू हुई, दस लाख महिलाओं की यह सेना, माँ और बच्चे की सेहत में ज़बरदस्त सुधार ला रही है, परिवार नियोजन, टीका करन व अन्य सरकारी हेल्थ स्कीम्स आशा वालंटियर्स के जरिए ही लोगों तक पहुंचती हैं।

लेकिन अफसोस, कि आशा ताइयां कम तनख्वाह, बिना नौकरी की सुरक्षा और कम सम्मान के साथ मुश्किल हालात में काम कर रही हैं। कोविड-19 महामारी ने इनके ज़रूरी रोल को उजागर किया, जब उन्होंने घर-घर जाकर स्क्रीनिंग और टीकाकरण अभियान चलाने के लिए अपनी जान जोखिम में डाली, पर कभी-कभार मिलने वाली तारीफ से आगे, इन फ्रंटलाइन वॉरियर्स को सिस्टम की अनदेखी का सामना करना पड़ता है।

अगर भारत यूनिवर्सल हेल्थ कवरेज हासिल करने के बारे में गंभीर है, तो उसे ‘आशा’ कार्यक्रम में फौरन सुधार करना चाहिए, अपने सबसे ज़रूरी हेल्थकेयर वर्कर्स के लिए सही तनख्वाह, बेहतर काम करने के हालात और सम्मान तय करना चाहिए।

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एक रिटायर्ड आशा वॉलंटियर ने बताया कि ऑफिशियली “वॉलंटियर” के तौर पर मानी जाने वाली ‘आशा’ वर्कर्स को औपचारिक नौकरी के फायदे नहीं मिलते, कोई फिक्स तनख्वाह, पेंशन, हेल्थ इंश्योरेंस या मैटरनिटी लीव नहीं। उनके परफॉरमेंस पर आधारित इंसेंटिव से उनकी कमाई औसतन ₹5,000 से ₹10,000 प्रति माह होती है, जो गुज़ारे के लिए बहुत कम है, भुगतान में अक्सर देरी होती है, जिससे कई लोगों को एक्स्ट्रा काम करना पड़ता है।

सोचिए, ‘आशा’ कार्यकर्ता लगभग 30 काम एक साथ करती हैं, टीकाकरण अभियान से लेकर मातृ स्वास्थ्य परामर्श तक, अक्सर हफ्ते में 20+ घंटे काम करती हैं। कई लोग बिना ट्रांसपोर्ट अलाउंस, पीपीई किट या बेसिक मेडिकल सप्लाई के हर दिन कई मील पैदल चलते हैं। उन्हें कभी भी हटाया जा सकता है, जिससे वे फाइनेंशियली कमज़ोर हो जाती हैं, कई लोगों ने सहायक नर्स दाइयों (एएनएम) और मेडिकल ऑफिसर्स से खराब बर्ताव की शिकायत की है, जिसमें बहुत कम कंस्ट्रक्टिव सुपरविज़न है। महिला ‘आशा’ वर्कर्स को घरेलू झगड़ों का सामना करना पड़ता है, कुछ को तो उनके काम के लिए तलाक की धमकी भी दी जाती है, ऊँची जाति के परिवार अक्सर उन्हें एंट्री देने से मना कर देते हैं, जिससे हेल्थ सर्विस में रुकावट आती है।

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अनियमित अपस्किलिंग प्रोग्राम्स की वजह से मेंटल हेल्थ, डिजीज मॉनिटरिंग और इमरजेंसी केयर में नॉलेज की कमी बनी हुई है। इन मुश्किलों के बावजूद, ‘आशा’ कार्यकर्ताओं ने माँ और बच्चे की मृत्यु दर में कमी, टीकाकरण दरों में बढ़ोतरी, टीबी और एचआईवी के बारे में जागरूकता में सुधार, मानसिक स्वास्थ्य सहायता देने और हेल्थ रिकॉर्ड्स का डिजिटलीकरण जैसे क्षेत्रों में ज़रूरी रोल निभाया है। उनका गहरा कम्युनिटी ट्रस्ट लास्ट माइल हेल्थकेयर डिलीवरी को सुनिश्चित करता है, चाहे महामारी हो, बाढ़ हो या रेगुलर मैटरनिटी केयर, फिर भी, उनके बलिदानों पर ध्यान नहीं दिया जाता है।

आशा कार्यकर्ताओं को पावरफुल बनाने के लिए, एक्सपर्ट्स ने ढेरों सुझाव ऑलरेडी सरकार को दे रखे हैं। इंसेंटिव-बेस्ड पेमेंट्स को फिक्स तनख्वाह (कम से कम ₹15,000/माह) + परफॉरमेंस बोनस के साथ बदलना, पेंशन, हेल्थ इंश्योरेंस और मैटरनिटी बेनिफिट्स देना, ट्रांसपोर्ट अलाउंस, स्मार्टफोन, पीपीई किट और हेल्थ सेंटर्स पर आराम करने की जगह देना, देरी और भ्रष्टाचार से बचने के लिए पेमेंट्स को आसान बनाना, मेंटल हेल्थ, एनसीडी और इमरजेंसी रिस्पांस में रेगुलर स्किल डेवलपमेंट करना, ‘आशा’ को असिस्टेंट नर्स या पब्लिक हेल्थ वर्कर के रूप में सर्टिफाई करने के लिए मेडिकल कॉलेजों के साथ ब्रिज कोर्स करना, ऊँची हेल्थ सर्विस रोल में प्रमोशन के क्लियर रास्ते बनाना, जाति और लिंग के आधार पर रुकावटों के लिए सख्त भेदभाव विरोधी नीतियाँ बनाना, घरेलू झगड़ों को कम करने के लिए फैमिली सेंसिटाइजेशन प्रोग्राम चलाना, और मुख्य मेडिकल ड्यूटीज पर ध्यान देने के लिए नॉन-हेल्थ कामों को कम करना ज़रूरी है। ₹49,269 करोड़ के बिल्डिंग कंस्ट्रक्शन वर्कर्स वेलफेयर सेस फंड को आंशिक रूप से ‘आशा’ वेलफेयर को सपोर्ट करने के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है। केरल और तमिलनाडु जैसे राज्यों ने पहले ही बेहतर तनख्वाह स्ट्रक्चर का ट्रायल शुरू कर दिया है, इन मॉडलों को नेशनल लेवल पर लागू किया जाना चाहिए।

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‘आशा’ कार्यकर्ता “वॉलंटियर” नहीं हैं, वे ज़रूरी हेल्थ सर्विस प्रोफेशनल हैं। अगर भारत वाकई अपनी रूरल हेल्थ सिस्टम को वैल्यू देता है, तो यह दिखावटी सेवा से आगे बढ़ने और उन्हें वह सम्मान, तनख्वाह और सपोर्ट देने का वक्त है जिसकी वे हकदार हैं। उनकी लगातार सर्विस ने लाखों लोगों की जान बचाई है, अब, सिस्टम को उन्हें थकान और अनदेखी से बचाना चाहिए, ‘आशा’ कार्यकर्ताओं को पावरफुल बनाएँ, वरना रूरल हेल्थ सर्विस को टूटते हुए देखें, अभी एक्शन लेने का वक्त है।

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Editor in Chief of Agra Bharat Hindi Dainik Newspaper
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