बदल चुकी है राजनीति की लाइन और लंबाई: विपक्षी दल अभी भी पुराने ढर्रे पर

भारतीय राजनीति का बदलता परिदृश्य: धर्मनिरपेक्षता से ध्रुवीकरण की ओर

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बदल चुकी है राजनीति की लाइन और लंबाई: विपक्षी दल अभी भी पुराने ढर्रे पर

क्या भारतीय राजनीति दिखावटी धर्मनिरपेक्षता से ठोस ध्रुवीकरण की ओर बढ़ रही है? क्या दिल्ली चुनावों में “बंटोगे तो कटोगे” मंत्र का लाभ मिलेगा?

बृज खंडेलवाल

जून में हुए लोकसभा चुनावों में हार के बाद, क्या सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी ने हरियाणा और महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों में वांछित राजनीतिक लाभ प्राप्त करते हुए अपने कथानक और रणनीति में सुधार किया है? क्या आने वाले दिल्ली चुनावों में यह ध्रुवीकरण का नया मंत्र, “बटेंगे तो कटेंगे” और भी धारदार और सटीक होगा, और भाजपा के लिए फायदे का सौदा?

बांग्लादेश में हुए घटनाक्रमों और संकटग्रस्त पाकिस्तान के निरंतर हाशिए पर जाने के मद्देनजर ये प्रश्न प्रासंगिक हो गए हैं। पूरे उपमहाद्वीप में मुस्लिम राजनीति भटकाव ग्रस्त और दिशाहीन हो गई है, क्योंकि इस वक्त इस समुदाय में प्रेरणादायी आधुनिक नेताओं का टोटा है।

इस बीच, राजनीतिक पर्यवेक्षकों का मानना ​​है कि तथाकथित धर्मनिरपेक्ष राजनीति से ध्रुवीकृत राजनीति तक भारत की यात्रा जातिवाद, वोट बैंक के निर्माण और सांप्रदायिक समूहों के तुष्टिकरण से गहराई से जुड़ चुकी है। यह परिवर्तन राजनीतिक परिदृश्य में एक मौलिक बदलाव को दर्शाता है, जहां पहचान और आईडेंटिटी, एकता के फेविकोल के बजाय एक हथियार बन गई है। बहुसंख्यकवाद और अल्पसंख्यक राजनीति का परस्पर संबंध “सबका साथ, सबका विकास” की भावना को नुकसान पहुंचा रहा है।

2014 के बाद के दौर में, भारतीय राजनीति में लंबे समय से दबी बहुसंख्यक पहचान के दावे का बोलबाला रहा है। यह पहचान की राजनीति केवल एक प्रतिक्रिया नहीं है, बल्कि इसे अल्पसंख्यक समूहों की ओर झुकाव वाले ऐतिहासिक आख्यानों को पुनः प्राप्त करने के रणनीतिक प्रयास के रूप में भी देखा जा सकता है।

दूसरी ओर, विपक्ष खुद को अल्पसंख्यक हितों के रक्षक के रूप में पेश करता रहा है, जो हाशिए पर पड़े और उत्पीड़ित लोगों की हिमायत भी करता है। इससे भी सशक्तीकरण के बजाय पीड़ित होने की भावना से भरी प्रतिक्रियात्मक राजनीति पनपती है।

इस प्रतिकूल गतिशीलता में, दोनों पक्ष एक शून्य-योग खेल में शामिल होकर, एक ऐसी संस्कृति को बढ़ावा दे रहे हैं जहाँ तुष्टिकरण और चुनावी मुफ्तखोरी भयंकर तरीके से हावी हो चुकी है। जाति के राजनीतिकरण ने सामाजिक विभाजन या खाइयों को और बढ़ा दिया है। राजनीतिक दल जैसे समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, अक्सर जातिगत पहचान का लाभ उठाकर समर्थन जुटाते हैं। आरक्षण प्रणाली, जबकि ऐतिहासिक अन्याय को दूर करने के उद्देश्य से थी, इसका भी राजनीतिकरण किया गया है, जिसमें पार्टियाँ विभिन्न जाति समूहों के समर्थन के लिए होड़ करती हैं। इससे ऐसी स्थिति पैदा हो गई है जहाँ जातिगत पहचान का राजनीतिक उपकरण के रूप में तेजी से उपयोग किया जा रहा है, जो सामाजिक गतिशीलता में बाधा डाल रहा है और असमानताओं को बढ़ा रहा है।

1947 के बाद के द्वि-राष्ट्र सिद्धांत की प्रतिध्वनियाँ समकालीन भारतीय राजनीति आज भी गूंजती रहती हैं। इस पीरियड में जो नैरेटिव सेट किया गया विशेष रूप से धार्मिक विभाजन पर जोर देने वाले आख्यान, यकीनन धर्मनिरपेक्षतावादियों के एक धड़े द्वारा वैध ठहराए गए हैं, जिन्होंने समावेशी राजनीति की आड़ में अनजाने में सांप्रदायिक विभाजन को नफरत के कंक्रीट से मजबूत किया है। धर्मनिरपेक्षता के नाम पर, उन्होंने बहुसंख्यक समुदायों की ऐतिहासिक शिकायतों को नजरअंदाज कर दिया है, जिससे उनमें अलगाव की भावना पैदा हुई है।

इस मोहभंग ने ऐसे नेताओं और दलों को उभारा है जो खुद को पुनर्जीवित राष्ट्रवाद के नव अवतार के रूप में स्वयं को पेश कर रहे हैं, जो प्राचीन ज्ञान और स्थानीय आस्थाओं से प्रेरणा लेते हैं। इसके अलावा, मुफ्त और रियायतों की राजनीति, रेवड़ी बांटन, को दोधारी तलवार के रूप में देखा जा सकता है। जबकि ऐसे उपाय मतदाताओं को तत्काल राहत प्रदान कर सकते हैं, वे निर्भरता को बढ़ावा देते हैं और दीर्घकालिक विकास लक्ष्यों को कमजोर करते हैं।

उदाहरण के लिए, मुफ्त का वितरण, अल्पावधि में मतदाताओं को आकर्षित करते हुए, कड़ी मेहनत, नवाचार और टिकाऊ आर्थिक मॉडल के विकास को हतोत्साहित कर सकता है। अल्पकालिक चुनावी लाभ पर ध्यान केंद्रित करने से गरीबी और असमानता के मूल कारणों को संबोधित करने वाली स्थायी नीतियों की आवश्यकता पर असर पड़ सकता है।

2025 में भारत का राजनीतिक परिवर्तन ऐतिहासिक शिकायतों, पहचान के दावों और चुनावी रणनीतियों के जटिल अंतर्संबंध को दर्शाता है।

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Editor in Chief of Agra Bharat Hindi Dainik Newspaper
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