जब डॉक्टर खुद ही बीमार, तो मरीज राम भरोसे! – सेवा से उद्योग बना चिकित्सा व्यवसाय

Dharmender Singh Malik
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बृज खंडेलवाल 

एक बुजुर्ग सज्जन ने हाल ही में सुबह की सैर के दौरान अपने अनुभव साझा करते हुए एक मार्मिक टिप्पणी की, “जिस तरह पीड़ित अपराध के बाद पुलिस के पास जाने से डरते हैं, उसी तरह मरीज अब चिकित्सा सेवा लेने से कतराते हैं।” उनका कहना था कि डॉक्टरों पर जो भरोसा कभी था, जिन्हें ईश्वरीय स्वरूप माना जाता था, वह अब काफी हद तक खत्म हो चुका है। यह कथन बाइबिल की कहावत “चिकित्सक, खुद को ठीक करो” का स्पष्ट अनुस्मारक है, जिसमें यह कहा गया है कि दूसरों को ठीक करने वाले लोग पहले अपने दुखों का समाधान करें।

चिकित्सा सेवा में संकट: उपभोक्ता फोरम की बढ़ती शिकायतें

सामाजिक कार्यकर्ता पद्मिनी अय्यर का कहना है कि भारत में चिकित्सा उद्योग में संकट गहराता जा रहा है, और यह बढ़ती शिकायतों और उपभोक्ता फोरम के मामलों से साफ नजर आता है। उनके अनुसार, इस संकट का मूल कारण एक जटिल अंतर्संबंध है, जिसमें दवा उद्योग और भ्रष्ट राजनीतिक संस्थाओं का गठजोड़ शामिल है। यह गठजोड़ अक्सर मरीजों की भलाई के बजाय मुनाफे को प्राथमिकता देता है, जिसके कारण अनैतिक प्रथाओं का जन्म होता है।

सामाजिक टिप्पणीकार प्रोफेसर पारस नाथ चौधरी के अनुसार, दवा कंपनियों की आक्रामक मार्केटिंग रणनीतियों से अत्यधिक नुस्खे और महंगी दवाओं पर निर्भरता बढ़ती है, जो चिकित्सा के मूल सिद्धांत “पीड़ा को ठीक करना और कम करना” को कमजोर कर देती है।

चिकित्सा शिक्षा और प्रशासन में सुधार की आवश्यकता

भारत में हर साल बड़ी संख्या में मेडिकल स्नातक तैयार होते हैं, लेकिन उनके प्रशिक्षण की गुणवत्ता पर चिंता बनी हुई है। हालांकि, भारत में डॉक्टरों की संख्या बढ़ाने के लिए कई कदम उठाए गए हैं, फिर भी चिकित्सा शिक्षा और प्रशासन पर ध्यान देने की आवश्यकता है।

भारत में 13,08,009 एलोपैथिक डॉक्टर और 5.65 लाख आयुष डॉक्टर पंजीकृत हैं, जो WHO के मानक से बेहतर डॉक्टर-से-जनसंख्या अनुपात (1:834) दर्शाते हैं। हालांकि, डॉक्टरी शिक्षा में गुणवत्ता और चिकित्सा सेवाओं की पहुंच को लेकर लगातार समस्याएं बनी हुई हैं।

कमिशन संस्कृति और रिश्वतखोरी की समस्या

भारत में चिकित्सकों की निष्ठा पर सवाल उठाते हुए, दवा विक्रेता गोपाल जी कहते हैं, “मरीज डॉक्टरों को अब दयालु देखभाल करने वाले के बजाय दवा कंपनियों के सेल्सपर्सन के रूप में देखने लगे हैं।” चिकित्सा पेशेवरों के बीच रिश्वतखोरी और दलाली की बढ़ती संस्कृति से न केवल व्यक्तिगत चिकित्सकों की निष्ठा पर असर पड़ता है, बल्कि इससे समग्र स्वास्थ्य सेवा प्रणाली में जनता का विश्वास भी खत्म होता है।

कमीशन और वित्तीय प्रोत्साहन के कारण नैतिक विचारों को नजरअंदाज कर दिया जाता है, जो चिकित्सा पेशेवरों को भ्रष्टाचार के जाल में फंसा सकता है। यह स्थिति केवल व्यक्तिगत चिकित्सकों को नहीं, बल्कि पूरे चिकित्सा क्षेत्र को संकट में डाल देती है।

चिकित्सा सुधार का सही समय

भारत में मेडिकल कॉलेजों और चिकित्सा संस्थानों की संख्या में वृद्धि के बावजूद, गुणवत्ता और सेवाओं की पहुंच में लगातार समस्याएं बनी हुई हैं। 2024 तक भारत में 731 मेडिकल कॉलेज होंगे, जिसमें 423 सरकारी और 343 निजी कॉलेज शामिल हैं। वहीं, एमबीबीएस सीटों की संख्या 1,15,812 हो गई है, जो एक सकारात्मक संकेत है, लेकिन यह संख्या बढ़ने के बावजूद, शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार की जरूरत है।

इस समय भारत के चिकित्सा उद्योग में आत्मनिरीक्षण और सुधार की आवश्यकता है। चिकित्सा सेवा को पुनः एक दयालु और नैतिक पेशे के रूप में स्थापित करने के लिए कठोर कदम उठाने की जरूरत है। डॉक्टरों और चिकित्सा पेशेवरों को आत्मनिर्भर और संवेदनशील बनाने के लिए प्रशासन को ठोस कदम उठाने होंगे, ताकि मरीज़ों का विश्वास फिर से बहाल किया जा सके।

 

 

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Editor in Chief of Agra Bharat Hindi Dainik Newspaper
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