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लाइफस्टाइल

गुफा से गगनचुंबी सभ्यता तक: जननांगों की पर्दादारी और आज की नंगई का विरोधाभास प्राइवेट को पब्लिक क्यों कर रहे हैं लोग?

Dharmender Singh Malik
Last updated: 2025/05/10 at 1:41 PM
Dharmender Singh Malik
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6 Min Read
गुफा से गगनचुंबी सभ्यता तक: जननांगों की पर्दादारी और आज की नंगई का विरोधाभास प्राइवेट को पब्लिक क्यों कर रहे हैं लोग?
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अंदाज लगाइए दस हजार वर्ष पूर्व गुफा से बाहर निकले आदि मानव ने सर्व प्रथम किस इंसानी जिस्म के अंग को ढका होगा और क्यों?

बृज खंडेलवाल 

मानव इतिहास, गुफाओं की दीवारों पर उकेरी गई आदिम कला से लेकर आधुनिक महानगरों की आसमान छूती इमारतों तक एक अविश्वसनीय यात्रा है। इस विकास क्रम में, एक महत्वपूर्ण बदलाव जो स्पष्ट रूप से दिखाई देता है, वह है शरीर को, विशेषकर जननांगों को ढकने की प्रथा का उदय।

यह परिवर्तन मात्र एक शारीरिक आवश्यकता नहीं थी, बल्कि सभ्यता के अंकुरण का पहला स्पष्ट संकेत था। लगभग 10,000 ईसा पूर्व, जब मनुष्य ने कृषि का विकास किया, स्थायी बस्तियाँ बसाईं और सामाजिक संरचनाओं की नींव रखी, तभी उसने यह भी निर्धारित किया कि शरीर के कौन से अंग सार्वजनिक रूप से प्रदर्शित किए जा सकते हैं और किन पर पर्दा जरूरी है।

सिंधु घाटी सभ्यता, मेसोपोटामिया, प्राचीन मिस्र और कैटलहोयूक जैसी प्रारंभिक सभ्यताओं से प्राप्त पुरातात्विक अवशेष इस बात की पुष्टि करते हैं कि कमरबंध, स्कर्ट और लपेटने वाले वस्त्र जननांगों को ढकने के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले पहले परिधानों में से थे। सिंधु घाटी सभ्यता की प्रसिद्ध “पुजारी राजा” की मूर्ति या पशुपति मुहर, दोनों ही आकृतियों में शरीर के उस भाग पर किसी न किसी प्रकार का वस्त्र दर्शाया गया है जिसे समुदाय के लिए ‘निजी’ माना जाता था। उष्ण जलवायु, कृषि कार्यों की व्यावहारिक आवश्यकता, और इन वस्त्रों का धार्मिक एवं सामाजिक प्रतीकों के रूप में महत्व, सभी ने इस प्रथा को बढ़ावा दिया।

मेसोपोटामिया की सुमेरियन कला, विशेष रूप से गिलगमेश के महाकाव्य में एन्किदु का एक जंगली प्राणी से सभ्य नागरिक में रूपांतरण, वस्त्र धारण करने के साथ शुरू होता है। यह परिवर्तन वास्तव में शालीनता, आत्म-अनुशासन और सामाजिक स्वीकृति का प्रतीक था। प्राचीन मिस्र के लोग ‘शेंटी’ नामक लंगोट पहनते थे और महिलाएँ ‘शीथ ड्रेस’ (शरीर से चिपकी लंबी पोशाकें) पहनती थीं। नील नदी की गर्म जलवायु के बावजूद, शरीर के संवेदनशील हिस्सों को छिपाना सामाजिक रूप से आवश्यक माना जाता था।

क्या यह केवल सूर्य की किरणों, कीड़ों या बदलते मौसम से सुरक्षा का मामला था? संभवतः नहीं। यह एक गहरा सांस्कृतिक मानदंड था। जैसे-जैसे समाज अधिक जटिल होता गया, जननांगों को ढकना एक अपरिहार्य सामाजिक नियम बन गया। इसने यौन आकर्षण पर नियंत्रण स्थापित करने, पारिवारिक संरचना की स्थिरता बनाए रखने और सामाजिक पदानुक्रम को स्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। यहाँ तक कि पापुआ न्यू गिनी के कुछ आदिवासी समुदाय आज भी ‘लिंग म्यान’ (पेनिस शीथ) पहनते हैं, जो इस प्रवृत्ति को एक सार्वभौमिक मानवीय व्यवहार दर्शाता है।

भारतीय पौराणिक कथाएँ इस द्वंद्व को एक रोचक आयाम देती हैं। नागा साधुओं या कुछ देवियों की ऐसी छवियाँ जो पूर्णतः नग्न या अर्धनग्न होती हैं, सांसारिक बंधनों से मुक्ति और आध्यात्मिक ऊँचाई का प्रतीक मानी जाती हैं। इसके विपरीत, महाभारत में द्रौपदी के चीरहरण की कथा, जहाँ उसकी लाज बचाने के लिए वस्त्र चमत्कारिक रूप से बढ़ता चला जाता है, यह दर्शाती है कि सामाजिक रूप से शील की रक्षा करना कितना महत्वपूर्ण था।

संक्षेप में, नग्नता का कभी-कभी एक पवित्र या विशेष स्थान ज़रूर रहा, लेकिन समाज में पर्दा एक आवश्यक प्रथा के रूप में स्थापित हो गया। यह ‘प्रकृति बनाम कृत्रिम सभ्यता’ के बीच एक शाश्वत बहस की तरह था—एक ओर आध्यात्मिकता थी, तो दूसरी ओर सामाजिक व्यवस्था।

आज, जब हम “फ्री द निप्पल” जैसे आंदोलनों, सोशल मीडिया प्लेटफॉर्मों पर नग्नता के बढ़ते प्रदर्शन और फैशन की दुनिया में बढ़ते हुए खुलेपन को देखते हैं, तो यह प्रश्न उठता है: क्या हम उस प्रारंभिक बिंदु की ओर लौट रहे हैं जहाँ से हमने यात्रा शुरू की थी? क्या यह ‘आज़ादी’ की अभिव्यक्ति है या एक ऐसी सांस्कृतिक उदासीनता है जो उन बुनियादी नियमों को नकारती है जिनके आधार पर मानव समाज ने प्रगति की है?
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टरनेट, पोर्नोग्राफी और लोकप्रिय संस्कृति के माध्यम से नग्नता का महिमामंडन उस आदिम युग की याद दिलाता है जहाँ कोई सामाजिक प्रतिबंध नहीं थे—न शर्म, न हया, न लाज का कोई बंधन। जबकि प्राचीन सभ्यताओं ने यह स्थापित किया था कि जननांगों को ढकना मानव सभ्यता की पहली सीढ़ी थी, आज का समाज इसे ‘दमन’ और ‘पिछड़ी सोच’ कहकर खारिज करने लगा है।

क्या यह वास्तविक स्वतंत्रता है या अराजकता की ओर एक खतरनाक कदम? सभ्यता के इस लंबे सफर में, जहाँ एक साधारण लंगोट ने ‘वस्त्र क्रांति’ की नींव रखी थी, वहीं आज की बढ़ती हुई नग्नता एक नए सामाजिक प्रयोग की तरह उभर रही है। यह अनिश्चित है कि यह प्रयोग मनुष्य को और अधिक ‘सभ्य’ बनाएगा या उसे उसी आदिम अंधकार में वापस धकेल देगा जहाँ न कोई नियम थे, न कोई स्थापित रीति-रिवाज।

शायद अब समय आ गया है कि हम गहराई से विचार करें: क्या पर्दा केवल शरीर का आवरण था, या यह मन और मर्यादा की भी सुरक्षा थी?

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TAGGED: आदि मानव, इतिहास, जननांग ढकना, नग्नता, पर्दा, पहला वस्त्र, प्राचीन सभ्यताएं, बृज खंडेलवाल, मानव सभ्यता, विकास, सामाजिक नियम, सांस्कृतिक मानदंड
Dharmender Singh Malik May 10, 2025 May 10, 2025
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