संजय साग़र सिंह, नई दिल्ली, गटर में घुसकर हाथ से मैला साफ करते दलित आदमी को देखना और फिर अपराध बोध (Gilt) से बचने के लिए आँखें बंद कर लेना—यह एक ऐसी कड़वी सच्चाई है जो तेजी से तरक्की कर रहे भारत की आत्मा को आहत करती है। लेखक संजय साग़र सिंह ने अपने इस आलेख में समाज की उस मानसिकता पर गहरा प्रहार किया है, जो आजादी के 78 साल बाद भी मैनुअल स्कैवेंजिंग (Manual Scavenging) जैसी अमानवीय प्रथा को खत्म नहीं होने दे रही है।
नहीं बदल पाया ‘माइंड सेट’
लेखक का दर्द है कि हमने दुनिया भर की बड़ी-बड़ी बातें कर लीं, तकनीक विकसित कर ली, लेकिन यह माइंड सेट नहीं बदल पाए कि गटर की सफाई के लिए आज भी सिर्फ़ दलित ही क्यों घुसेगा। यह पीढ़ी दर पीढ़ी चल रहा एक अमानवीय सिलसिला है—पहले पिता, फिर उसका बेटा, फिर बेटे का बेटा।
लेखक उन लोगों पर भी कटाक्ष करते हैं जो मायावती जी के हीरे के गहनों को देखकर गदगद होते हैं, लेकिन गटर में घुसकर सफाई करने वाले दलित सफाई सैनिक की उन्हें कोई परवाह नहीं।
समाज के ठेकेदारों’ की मानसिकता
लेखक ने उस समय को याद किया जब उनके स्वर्गवासी पिता भगवान वाल्मीकि जयंती के जुलूस में अकेले व्यक्ति थे जो वाल्मीकि समाज के प्रतिनिधियों को फूलों का हार पहनाते थे। लेकिन पीठ पीछे कुछ लोग यह कहते थे कि “क्या मेल हमारा और उनका?”
लेखक का मानना है कि सेक्युलरिज्म का ड्रामा करने वाले लोग भी उस समय इस फंक्शन से दूर रहते थे, क्योंकि इसे ‘सिर्फ़ दलित समाज का फंक्शन’ माना जाता था। वह कड़े शब्दों में कहते हैं कि ऐसे ‘समाज के ठेकेदारों’ की मानसिकता अगले 100 साल भी नहीं बदलनी।
तकनीक ही करेगी कमी पूरी, समाज नहीं
लेखक ने स्वीकार किया कि कुछ ऐतिहासिक और तकनीकी बदलावों ने सामाजिक दूरी को कम किया है:
अंग्रेजों की रेलगाड़ी: इसने 50 साल की कमी पूरी की, क्योंकि सबको एक ही डिब्बे में बैठना पड़ा।
फ्लश टॉयलेट और सीवर सिस्टम: इसने 25 साल और कम कर दिए।
लेकिन उनका निष्कर्ष है कि यह बाकी बची कमी भी तकनीक ही पूरी करेगी, क्योंकि समाज के ठेकेदारों के बस की बात नहीं। उनकी सोच ही ऐसी है, जो बदल नहीं सकती।
लेखक के लिए कोई जज दलित है, यह मायने नहीं रखता। उनके लिए वह गटर वाला मायने रखता है, जो उन्हें राह चलते आहत करता है।
मोदी का कार्य बनाम समाज की चुप्पी
लेखक ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा सफाई कर्मियों के पैर धुलने के कार्य का जिक्र किया। उस समय भी लेखक ने कहा था कि इससे बेहतर होता कि देशभर के स्थानीय निकायों के लिए यह अनिवार्य किया जाए कि वे नाला साफ करने वाले लोगों को लांग बूट और दस्ताने उपलब्ध कराएँ।
लेखक ने कुछ सकारात्मक परिवर्तन देखे हैं: अब बड़ी मैन रोड्स पर सुपर सकर मशीनें दिखती हैं और छोटी रोड्स पर रस्सी वाली मशीनें गटर की गंदगी बाहर निकाल देती हैं। लेकिन यह 100% जगह पर होना चाहिए, क्योंकि मानव को गटर में घुसना पड़े, यह बहुत ही अमानवीय है।
अंत में, लेखक एक तीखा सवाल छोड़ते हैं: जब मोदी दलितों को अपना सकते हैं, तो ये ‘अपने-अपने नियम वाले चंद समाज के ठेकेदार’ इन कमज़ोर गरीब दलितों को आज भी क्यों नहीं अपना रहे हैं? यह आज भी सबसे बड़ा सवाल है।