बृज खंडेलवाल
आज के भारत में अगर किसी बेरोजगार युवक से पूछो कि “क्या कर रहे हो?”, तो ज्यादातर जवाब आता है — “आईएएस की तैयारी कर रहा हूं।” जैसे दुनिया में समाज सेवा करने का बस एक ही रास्ता बचा है — कलेक्टर बनो!। राजधानी दिल्ली के कुछ इलाकों में ऐसे “उड़ान” के सपने देखने वाले युवाओं और कोचिंग सेंटर्स, फोटो कॉपिंग शॉप्स की भरमार है। हॉल ही में एक फिल्म भी इसी विषय पर पुरस्कृत हुई है।
लेकिन असलियत यह है कि “सेवा” के इस मुखौटे के पीछे “सत्ता, शान और सेल्फी” की भूख ज्यादा है। आईएएस अब केवल प्रशासनिक पद नहीं, बल्कि एक ब्रांड बन गया है — एक एलिट क्लब, जहां सदस्यता पाने के लिए लाखों युवा अपनी जवानी जला रहे हैं।
कहते हैं, भारत बदल गया है — पर अफसोस, भारत की नौकरशाही अब भी औपनिवेशिक दौर में अटकी हुई है। अंग्रेज़ों के जमाने की Indian Civil Service (ICS) का जो ‘रूलिंग क्लास’ वाला DNA था, वही आज Indian Administrative Service (IAS) की रगों में बह रहा है। नाम बदला, रवैया नहीं। ‘हम हुक्म देते हैं, जनता पालन करती है’ —”अरे, कोई है” __ यह मानसिकता आज भी कायम है। अफसर खुद को “जनसेवक” नहीं, बल्कि “जननायक” समझने लगे हैं।
बात करें हकीकत की — तो आज के अफसरशाही के किस्से, औपनिवेशिक लूट से भी कहीं आगे हैं।
2022 में झारखंड की एक आईएएस ऑफिसर ने मनरेगा के गरीब मजदूरों का 18 करोड़ रुपये हड़प लिया। पैसा था ग्रामीण विकास का, लेकिन इस्तेमाल हुआ आलीशान लाइफस्टाइल के लिए। उसी साल, छत्तीसगढ़ के एक आईएएस ने खनन मंजूरी के लिए 500 करोड़ की रिश्वत ली — यानी ज़मीन, जंगल, नदियाँ सब बिकाऊ हैं, बस दाम सही लगना चाहिए।
2024 में झारखंड में चुनी हुई महिला सरपंच सोनम लकड़ा को एक आईएएस ने मनमाने ढंग से हटा दिया — सुप्रीम कोर्ट तक को कहना पड़ा कि ये रवैया “औपनिवेशिक मानसिकता” का उदाहरण है। यानी आज़ाद भारत में भी अधिकारी चुने हुए जनप्रतिनिधियों को कीड़े-मकोड़े समझते हैं।
2025 में त्रिपुरा के एक आईएएस को 10 लाख की रिश्वत लेते रंगे हाथ पकड़ा गया। और छत्तीसगढ़ का शराब घोटाला तो मानो “खुल जा सिमसिम” कहानी निकला — जहां रिटायर्ड आईएएस निरंजन दास ने नीति को अपनी जेब में रख लिया था। सिर्फ नेता ही नहीं, नौकरशाही भी भ्रष्ट है, बल्कि अहंकारी भी। जनता के टैक्स से मिलने वाली सैलरी पर पलते हैं, लेकिन खुद को जनता से ऊपर समझते हैं।
इन सबके बीच, सवाल उठता है — आखिर क्यों हर पढ़ा-लिखा, काबिल नौजवान “आईएएस” की दौड़ में शामिल हो जाता है? क्यों IIT या MBBS करने के बाद भी किसी का लक्ष्य ‘डॉक्टर बनना’ या ‘इंजीनियर बनना’ नहीं, बल्कि ‘कलेक्टर बनना’ रह गया है? क्यों देश में “सेवा” और “सत्ता” के बीच की रेखा मिट गई है?
कारण साफ है — इस देश में “सिस्टम” को बदलने की नहीं, “सिस्टम” का हिस्सा बनकर हुकूमत करने की चाह बढ़ी है। नौकरशाही अब ‘Power Posting’ का खेल बन चुकी है — जहां ट्रांसफर, टेंडर और टैक्स सबका मोल है। और ये खेल किसी एक अफसर तक सीमित नहीं, बल्कि एक पूरी संस्कृति बन चुका है — “हम अफसर हैं, हमें कोई नहीं पूछ सकता।”
भारत की नौकरशाही में जवाबदेही (accountability) नाम की चीज़ लगभग लुप्त है। अधिकारी गलती करें तो “इंक्वायरी”, जनता करे तो “FIR”। यही दोहरा मापदंड लोकतंत्र की आत्मा को कमजोर करता है। जनता का काम समय पर हो जाए, यह अपवाद है; फाइलें महीनों दबाकर रखना, काम के बदले एहसान जताना — यह नौकरशाही की रोजमर्रा की आदत है।
जरूरत है एक नए प्रशासनिक संस्कार की — जहां अफसर को याद रहे कि उसकी कुर्सी जनता की मेहरबानी से है, न कि किसी राजवंश की विरासत से। हर अधिकारी की संपत्ति का सालाना खुलासा अनिवार्य हो, सजा में देरी खत्म हो, और डिजिटल पारदर्शिता (जैसे public grievance portal और citizen feedback system) को प्राथमिकता दी जाए। मसूरी अकादमी प्रशिक्षण में “सत्ता का अहंकार” नहीं, “सेवा की विनम्रता” सिखाए। जब तक ‘सेवा’ को ‘सत्ता’ से अलग नहीं किया जाएगा, तब तक देश में नौकरशाही की चमक के पीछे जनता का अंधेरा और गहराता रहेगा।