काशी, जिसे हम ‘मुक्ति की नगरी’ के नाम से भी जानते हैं, में एक ऐसी अद्भुत परंपरा का आयोजन हुआ, जो इस प्राचीन नगरी की सांस्कृतिक और धार्मिक विरासत को और भी खास बनाती है। यह परंपरा है – मणिकर्णिका घाट पर नगर वधुओं द्वारा बाबा मसान नाथ को अर्पित नृत्यांजलि। हर साल की तरह इस बार भी नवरात्र के सप्तमी तिथि पर काशी की इन नगर वधुओं ने बाबा महाश्मशान नाथ के प्रति अपनी श्रद्धा और सम्मान व्यक्त किया। यह परंपरा पिछले 350 वर्षों से जारी है और आज भी उसी श्रद्धा और उल्लास के साथ मनाई जाती है।
“काशी में मृत्यु भी एक उत्सव है”
काशी के बारे में एक प्रसिद्ध मान्यता है कि यहाँ मृत्यु भी उत्सव के रूप में मनाई जाती है। मणिकर्णिका घाट, जो काशी का प्रमुख श्मशान घाट है, पर जब जीवन और मृत्यु के बीच का संतुलन दिखाई देता है, तो यह दृश्य एक अनूठा अनुभव होता है। इस दौरान नगर वधुएं, जो काशी की सांस्कृतिक धारा का अभिन्न हिस्सा मानी जाती हैं, धधकती चिताओं के बीच नृत्य करती हैं, जिससे जीवन और मृत्यु का अद्भुत सामंजस्य देखने को मिलता है।
नवरात्र की सप्तमी: नगर वधुएं अर्पित करती हैं नृत्यांजलि
नवरात्र की सप्तमी को काशी के मणिकर्णिका घाट पर एक खास आयोजन हुआ। इस दिन नगर वधुएं, जो अपनी कला और नृत्य के लिए प्रसिद्ध हैं, बाबा मसान नाथ को नृत्यांजलि अर्पित करने के लिए घाट पर उपस्थित होती हैं। पहले, वधुएं बाबा महाश्मशान नाथ की आरती करती हैं, फिर उनका गायन और नृत्य कार्यक्रम शुरू होता है। इस दौरान, चिताओं के पास वे घुंघरुओं की झंकार के साथ नृत्य करती हैं। यह दृश्य बेहद भावपूर्ण और आकर्षक होता है, जो दर्शकों को जीवन और मृत्यु की परिभाषा पर विचार करने को मजबूर करता है।
350 साल पुरानी परंपरा
यह परंपरा काशी में सैकड़ों वर्षों से चली आ रही है। गुलशन कपूर, जो इस परंपरा के इतिहासकार हैं, बताते हैं कि यह परंपरा राजा मानसिंह के समय से जुड़ी हुई है। अकबर के नवरत्नों में से एक राजा मानसिंह ने काशी में बाबा मसान नाथ के मंदिर का जीर्णोद्धार किया था। जब मंदिर में संगीत प्रस्तुति देने के लिए कोई भी कलाकार तैयार नहीं हुआ, तब नगर वधुओं ने ही अपने नृत्य और संगीत के माध्यम से बाबा मसान नाथ को श्रद्धांजलि अर्पित करने का प्रस्ताव भेजा। राजा मानसिंह ने इस प्रस्ताव को स्वीकार किया और इस तरह यह परंपरा शुरू हुई।
आध्यात्मिक और सांस्कृतिक संदेश
इस परंपरा को लेकर एक मान्यता यह भी है कि नगर वधुएं इसे अपने जीवन में मुक्ति की ओर एक कदम बढ़ने के रूप में देखती हैं। उनका मानना है कि इस नृत्यांजलि से उनका पाप कटता है और वे अपने नरकिय जीवन से मुक्ति प्राप्त करती हैं। इस दृष्टिकोण ने इस परंपरा को और भी महत्वपूर्ण बना दिया है। आज भी, 350 साल बाद, काशी के मणिकर्णिका घाट पर नगर वधुएं बिना बुलाए इस परंपरा का निर्वहन करती हैं।