राजस्थान के जयपुर में पिछले दिनों जाट महाकुंभ का आयोजन किया गया था। जिसका उद्देश्य पूरी तरह राजनीतिक था। आठ महीने बाद राजस्थान विधानसभा के चुनाव होने हैं। जाट समाज का प्रदेश की राजनीति में बहुत प्रभाव है। इस सम्मेलन का उद्देश्य राजनीति में जाट समाज की भागीदारी को बढ़ाना था। राजस्थान में लोकसभा के 6 व विधानसभा के करीबन 33 सदस्य जाट समुदाय से आते हैं। राजस्थान में जाट समाज की आबादी भी 12 प्रतिशत से अधिक है। इतना अधिक प्रभाव होने के बाद भी आज तक राजस्थान में जाट मुख्यमंत्री नहीं बन सका है। इसी बात को लेकर जाट समाज के लोगों में नाराजगी है।
राजस्थान के गंगानगर, हनुमानगढ, बीकानेर, चूरू, झुंझुनू ,सीकर, जयपुर, भरतपुर, नागौर, अजमेर, चित्तौड़गढ, भीलवाड़ा, पाली, जोधपुर, बाड़मेर, जैसलमेर सहित कई जिलों में जाट समाज का बहुत प्रभाव है। इन जिलों के लोकसभा व विधानसभा चुनाव में जाट मतदाता निर्णायक भूमिका निभाते हैं। जिस तरफ जाट समाज का झुकाव होता है उसी पार्टी के प्रत्याशियों की जीत होती है।
संख्या में सबसे अधिक होने के उपरांत भी जाट समाज के नेताओं को राजनीति में पर्याप्त महत्व नहीं मिल पाया है। राजस्थान के जाट मतदाता पांच दशक तक लगातार कांग्रेस पार्टी को एक तरफा समर्थन देते रहे थे। देश की आजादी के बाद रियासतों को समाप्त करने से जाट समाज का जुड़ाव कांग्रेस से हो गया था। राजस्थान में जाट समाज कांग्रेस का मजबूत वोट बैंक माना जाता था। जाट समाज के कई ऐसे बड़े नेता हुए जो प्रदेश व देश की राजनीति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते थे।
बलदेव राम मिर्धा बड़े नेता थे जिन्होंने जाट समाज के लोगों को संगठित करने का काम किया था। देश की आजादी के बाद राजनीति में कुंभाराम आर्य, सरदार हरलाल सिंह, नाथूराम मिर्धा, रामनिवास मिर्धा, परसराम मदेरणा, कमला, दौलत राम सारण, सुमित्रा सिंह, रामनारायण चौधरी, शीशराम ओला, शिवनाथसिंह गिल, रामदेव सिंह महरिया, डॉक्टर हरिसिंह, नारायण सिंह, कामरेड संपत सिंह, मनफूल सिंह भादू, हेमाराम चौधरी, महादेव सिंह खंडेला, नटवर सिंह, बलराम जाखड़, लालचंद कटारिया, नरेंद्र बुडानिया, सांवरलाल जाट, राजा मानसिंह, महाराजा विश्वेंद्र सिंह, हनुमान बेनीवाल, कैलाश चौधरी, गोविंद सिंह डोटासरा, सतीश पूनिया जैसे बड़े व प्रभावी जाट नेता रहे हैं। जो अपने-अपने पार्टियों में बड़े पदों पर रहकर राजनीति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
एक समय में तो चौधरी कुंभाराम आर्य, नाथूराम मिर्धा, परसराम मदेरणा जैसे दिग्गज जाट नेता थे जिनकी बात को टालने की हिम्मत किसी मुख्यमंत्री में भी नहीं होती थी। चौधरी कुंभाराम आर्य तो इतने प्रभावशाली नेता थे कि कलेक्टरों तक कि उनके चेंबर में जाने की हिम्मत नहीं होती थी। उनका आम जनता पर बहुत प्रभाव था। इसी कारण वह बार-बार क्षेत्र बदलकर चुनाव जीतते थे। इतना प्रभाव होने के उपरांत भी मुख्यमंत्री बनने का उन्हें कभी मौका नहीं मिल सका।
1973 में पहली बार जाट नेता रामनिवास मिर्धा मुख्यमंत्री पद के दावेदार बने थे। मगर हरिदेव जोशी के सामने एक वोट से हारने के कारण मुख्यमंत्री बनने से रह गए थे। इसी तरह 2008 में शीशराम ओला ने अशोक गहलोत के सामने मुख्यमंत्री पद की दावेदारी जतायी थी। मगर अधिक विधायकों का समर्थन नहीं होने से मुख्यमंत्री नहीं बन पाए। इसके अलावा कभी जाट नेताओं ने सीधे मुख्यमंत्री पद की लड़ाई भी नहीं लड़ी।
आज के समय में तो कांग्रेस हो या भाजपा या अन्य कोई राजनीतिक दल किसी में भी बड़े कद का कोई जाट नेता नहीं है जो मुख्यमंत्री बनने की दौड़ में शामिल हो सके। कांग्रेस ने गोविंद सिंह डोटासरा को प्रदेश अध्यक्ष बना रखा है। मगर उनका कद मुख्यमंत्री पद की दौड़ में शामिल होने का नहीं बन पाया है। प्रदेश अध्यक्ष बनने से पूर्व डोटासरा राजस्थान सरकार में राज्यमंत्री ही थे। जाट समाज के लालचंद कटारिया, रामलाल जाट, हेमाराम चौधरी, विश्वेंद्र सिंह, बृजेंद्र सिंह ओला मौजूदा गहलोत सरकार में मंत्री हैं। मगर इनमें से किसी का भी कद इतना बड़ा नहीं है कि वह मुख्यमंत्री बन सके।
भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष सतीश पूनिया को हाल ही में अध्यक्ष पद से हटा कर विधानसभा में उप नेता प्रतिपक्ष बनाया गया है। पहली बार आमेर से विधायक बने सतीश पूनिया के प्रदेश अध्यक्ष बनने से प्रदेश की राजनीति में उनका कद बढ़ा था। मगर अध्यक्ष पद से हटने के बाद उनका भी प्रभाव कम रह जाएगा। अभी प्रदेश में चूरू से राहुल कसवां, झुंझुनू से नरेंद्र कुमार खीचड़, सीकर से स्वामी सुमेधानंद सरस्वती, बाड़मेर से कैलाश चौधरी, अजमेर से भागीरथ चौधरी भाजपा टिकट पर सांसद हैं। नागौर से राष्ट्रीय लोकतांत्रिक पार्टी के हनुमान बेनीवाल सांसद है जो भाजपा गठबंधन से चुनाव जीते थे।
झुंझुनू जिले से आने वाले जाट समाज के जगदीप धनखड़ देश के उपराष्ट्रपति हैं। बाड़मेर से सांसद कैलाश चौधरी केंद्र सरकार में कृषि एवं किसान कल्याण राज्यमंत्री हैं। केंद्र सरकार में कोई जाट नेता कैबिनेट मंत्री नहीं है। जबकि पूर्व में कई जाट नेता कैबिनेट मंत्री रह चुके हैं। सीकर से सांसद रहे बलराम जाखड़ लोकसभा अध्यक्ष व केंद्रीय कृषि मंत्री रहे हैं। सीकर से सांसद रहे देवीलाल देश के उप प्रधानमंत्री रह चुके हैं। जाट समाज के नाथूराम मिर्धा, रामनिवास मिर्धा, कुंवर नटवर सिंह, जगदीप धनखड़, दौलत राम सारण, शीशराम ओला, सुभाष महरिया, महादेव सिंह खंडेला, लालचंद कटारिया, प्रोफेसर सांवरलाल जाट, सी आर चौधरी केंद्र सरकार में मंत्री रह चुके हैं।
जाट समाज से आने वाले सरदार हरलाल सिंह, नाथूराम मिर्धा, रामनारायण चौधरी, परसराम मदेरणा, नारायण सिंह, डॉक्टर चंद्रभान प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष रह चुके हैं। वही कमला राजस्थान की उपमुख्यमंत्री व त्रिपुरा, गुजरात, मिजोरम की राज्यपाल रह चुकी है। सतीश पूनिया भाजपा में पहले जाट प्रदेश अध्यक्ष बने थे।
नागौर से सांसद हनुमान बेनीवाल ने 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा से गठबंधन कर नागौर सीट जीती थी। उसके बाद वह भाजपा नीत एनडीए गठबंधन में सहयोगी बने हुए थे। मगर पिछले कुछ समय से वह अपना अलग ही राग अलाप रहे हैं। हनुमान बेनीवाल जाट समाज के सबसे अधिक लोकप्रिय नेता है तथा अपनी बात मुखरता से कहते हैं। मगर उनकी राष्ट्रीय लोकतांत्रिक पार्टी का प्रदेश में ज्यादा जनाधार नहीं है। जाट समाज के अलावा अन्य जातियों का जुड़ाव भी उनकी पार्टी से नहीं हो रहा है। कांग्रेस व भाजपा के नेता भी नहीं चाहते हैं कि प्रदेश की राजनीति में हनुमान बेनीवाल ज्यादा मजबूत हो।
राजस्थान में सबसे बड़ी राजनीतिक ताकत जाट समाज प्रदेश की करीबन 100 विधानसभा सीटों पर हार जीत में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इसी तरह प्रदेश की एक दर्जन से अधिक लोकसभा सीटों पर भी जाट समाज का व्यापक प्रभाव होने के उपरांत भी टिकट देते वक्त सभी राजनीतिक दल जाट समाज को उनके प्रभाव के अनुरूप टिकट नहीं देते है। इसी कारण जाट समाज के कभी चालीस से अधिक विधायक नहीं जीत पायें हैं।
इस बार जाट समाज आर-पार की राजनीति करने के मूड में नजर आ रहा है। मगर उनके पास प्रभावी नेतृत्व नहीं होने के कारण राजनीति में उन्हें अपना पूरा हक नहीं मिल पा रहा है। इसी के चलते जाट समाज का मुख्यमंत्री भी नहीं बन पा रहा है। जाट समाज कितना एकजुट होकर अपने अधिक से अधिक विधायक जीता पाता है। इसका पता तो आने वाले विधानसभा चुनावों के परिणामों मे चल जायेगा। चुनावी नतीजों पर ही जाट समाज की आगे की राजनीति निर्भर करेगी।