रटंत विद्या फलांत नाही: रटने और रचनात्मकता का संतुलन – भारतीय शिक्षा का नया दृष्टिकोण

Dharmender Singh Malik
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रटंत विद्या फलांत नाही: रटने और रचनात्मकता का संतुलन - भारतीय शिक्षा का नया दृष्टिकोण

बृज खंडेलवाल 

“रटकर सीखने से कोई फ़ायदा नहीं होता।” यह कहावत भारतीय शिक्षा प्रणाली पर एक लंबे समय से चली आ रही बहस को दर्शाती है: क्या रटकर सीखना (rote learning) भारत की शिक्षा का अभिन्न अंग होना चाहिए, या पश्चिमी शिक्षा मॉडल की तरह रचनात्मकता और आलोचनात्मक सोच पर अधिक ध्यान देना चाहिए?

हाल ही में बेंगलुरु में हुए एक कार्यक्रम में, एक अमेरिकी उद्योगपति ने भारतीय शिक्षा प्रणाली की प्रशंसा करके सबको चौंका दिया. उनका तर्क था कि रटकर सीखने, कड़ी मेहनत और लगन पर भारतीय शिक्षा का जोर इसे पश्चिमी प्रणालियों से बेहतर बनाता है, जिसका प्रमाण अमेरिका में शिक्षित भारतीयों की वैश्विक सफलता है. इसी तरह, एक जर्मन शिक्षाविद ने पश्चिमी विश्वविद्यालयों में रचनात्मकता की कमी पर चिंता व्यक्त की. उन्होंने कहा कि पश्चिमी छात्रों में वैश्विक दृष्टिकोण, लगन और कड़ी मेहनत के प्रति सम्मान की कमी हो रही है, जिससे बौद्धिक पतन हो रहा है.

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रटने की शिक्षा: एक ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य – Historical Perspective of Rote Learning

भारत की शिक्षा प्रणाली लंबे समय से याद करने की कला पर आधारित रही है, जिससे आलोचनात्मक और प्रयोगात्मकता के लिए कम जगह बची है. ब्रिटिश औपनिवेशिक शिक्षा प्रणाली, जो भारत पर थोपी गई थी और अभी भी कुछ बदलावों के साथ जारी है, रटने की शिक्षा पर बहुत अधिक निर्भर करती है. शिक्षक अक्सर पाठ्यक्रम से परे प्रश्नों को हतोत्साहित करते हैं, जिससे छात्रों की जिज्ञासा दब जाती है.

क्या रटना पूरी तरह से बुरा है? – Is Rote Learning Completely Bad?

प्रोफेसर पारस नाथ चौधरी का तर्क है कि बुनियादी रटना आवश्यक है. बुनियादी कौशल (पढ़ना, लिखना और गणित) हासिल करने के लिए रटना ज़रूरी है. पूर्वी भारत, विशेषकर बिहार के छात्र, रटने की कला में माहिर हैं और अक्सर प्रतियोगी परीक्षाओं में अच्छा प्रदर्शन करते हैं.

समाजशास्त्री टी.पी. श्रीवास्तव बताते हैं कि प्राचीन भारत में ज्ञान को आश्रमों और मठों में याद करके संरक्षित किया जाता था. ऋषियों और गुरुओं ने अपना जीवन पवित्र ग्रंथों और दर्शन को पढ़ाने में समर्पित कर दिया, जिसमें मंत्रों के जाप पर जोर दिया जाता था. इस प्रक्रिया ने एक मजबूत मौखिक परंपरा को जन्म दिया और भारत की समृद्ध बौद्धिक विरासत को संरक्षित किया.

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आचार्य भूपेंद्र पांडे के अनुसार, आधुनिक शिक्षा में रटने को पुराना माना जाता है, लेकिन भारतीय संदर्भ में इसके कुछ लाभ भी हैं. भारत की शिक्षा प्रणाली अपने विशाल पाठ्यक्रम के लिए जानी जाती है, और सीमित समय में सभी विषयों को कवर करने के लिए रटना एक व्यावहारिक समाधान प्रदान करता है. यह छात्रों को परीक्षाओं के लिए ज़रूरी बुनियादी ज्ञान जल्दी से हासिल करने में मदद करता है.

पुणे के शिक्षाविद श्री तपन जोशी बताते हैं कि रटने से संज्ञानात्मक लाभ भी होते हैं. दोहराव तंत्रिका कनेक्शन को मजबूत करता है, जिससे याददाश्त बढ़ती है. यह गणित और विज्ञान जैसे विषयों में विशेष रूप से उपयोगी है.

रटने की आलोचना- Criticism of Rote Learning

इन लाभों के बावजूद, रटने की शिक्षा की आधुनिक शिक्षकों द्वारा आलोचना की जाती है. शैक्षिक सलाहकार मुक्ता गुप्ता का कहना है कि रटने का दृष्टिकोण विविध शिक्षण शैलियों और प्रतिभाओं की उपेक्षा करता है. इससे छात्रों में सतही समझ और सीखने के प्रति उत्साह की कमी हो सकती है. रटकर याद किया हुआ ज्ञान जल्दी ही भूल जाता है, जिससे छात्र अवधारणाओं को व्यावहारिक रूप से लागू करने में असमर्थ हो जाते हैं.

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संतुलित दृष्टिकोण की आवश्यकता – Need for a Balanced Approach

वरिष्ठ शिक्षाविद ताऊजी, जिन्होंने भारतीय और अमेरिकी दोनों छात्रों को पढ़ाया है, एक संतुलित दृष्टिकोण की वकालत करते हैं. उनका मानना है कि एक अच्छी शिक्षा रणनीति यह सुनिश्चित करे कि अगली पीढ़ी न केवल तथ्यों को याद रखे, बल्कि सोचना, नवाचार करना और ज्ञान को प्रभावी ढंग से लागू करना भी सीखे. भारत की शिक्षा प्रणाली को रटने की शिक्षा और रचनात्मक सोच दोनों की शक्तियों को मिलाकर विकसित होना चाहिए.

“रटंत विद्या फलांत नाही” कहावत अपनी जगह सही है, लेकिन रटने का पूरी तरह से त्याग करना भी उचित नहीं है. भारतीय शिक्षा प्रणाली को रटने और रचनात्मकता के बीच एक संतुलन स्थापित करना चाहिए, ताकि छात्रों का सर्वांगीण विकास हो सके.

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Editor in Chief of Agra Bharat Hindi Dainik Newspaper
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