बृज खंडेलवाल
पिछले दो महीनों से कर्नाटक दहशतख़ेज़ ख़बरों से घिरा रहा है। एक व्हिसलब्लोअर ने आरोप लगाया कि सैकड़ों महिलाओं और लड़कियों का रेप करके उनकी हत्या की गई और उनकी लाशें श्री मंजूनाथ मन्दिर, धर्मस्थल के आसपास छुपा दी गईं। यह आरोप धमाकेदार था: धर्मस्थल जैसा पवित्र स्थान, छुपे हुए अपराधों की क़ब्रगाह बना दिया गया।
टीवी चैनलों पर गरमा-गरम बहसें छिड़ गईं, राजनीतिक पार्टियाँ एक-दूसरे पर आरोप लगाने लगीं और “हाई-टेक” फॉरेंसिक जाँच की माँग उठने लगी। 17 जगहों पर खुदाई हुई। नतीजा? अब तक कुछ भी नहीं। न कोई कब्र, न लाशें, न कोई विश्वसनीय गवाह। जो खोपड़ी “सबूत” के तौर पर दिखाई गई, वह भी पुरुष की निकली। हफ़्तों तक कर्नाटक की राजनीति को हिला देने वाला “धर्मस्थल सामूहिक क़ब्र” मामला राजनीति से प्रेरित था या कुछ और, भविष्य बताएगा।
लेकिन यह वाक़या कोई अपवाद नहीं है। यह उस खतरनाक पैटर्न की परतें खोलता है कि किस तरह सनसनीख़ेज़ कहानियाँ आग की तरह फैल जाती हैं, जुनून भड़काती हैं, मगर हक़ीक़त सामने आते ही राख से ज़्यादा कुछ नहीं बचता। भारत ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया पिछले दशक में इस किस्म की फ़ेक न्यूज़ की दीवानगी झेल चुकी है—सोने के ख़ज़ाने का झूठ, बलात्कार के गढ़े हुए आरोप, या चुनावी धाँधली की अफ़वाहें—जिन्होंने अविश्वास गहरा किया और समाज को और भी बाँट डाला।
भारत की “दफ़्न ख़ज़ाने” वाली दीवानगी ने कई ऐसी अफ़वाहों को जन्म दिया। इनमें सबसे मशहूर उन्नाव गोल्ड ट्रेज़र हंट (2013) रहा। एक साधु ने सपना देखा कि एक वीरान क़िले के नीचे हज़ार टन सोना दबा है। हैरत की बात यह कि पुरातत्व विभाग ने भू-वैज्ञानिकों के अधूरे सबूतों पर खुदाई शुरू भी कर दी। नेता कूद पड़े, मीडिया ने इसे “राष्ट्रीय तमाशा” बना दिया। नतीजा—सिर्फ़ ज़ंग लगा लोहा और टूटा शीशा। सोना महज़ कल्पना निकला। मगर इस तमाशे ने दिखा दिया कि अंधविश्वास और अफ़वाह, ज्ञान और अक़्ल को कितनी आसानी से मात दे सकते हैं।
कुछ साल बाद सोनभद्र (2020) में भी ऐसी ही सनसनी फैली। दावा किया गया कि 3,000 टन सोना—₹12 लाख करोड़ की क़ीमत का—मिला है, जो भारत के भंडार से पाँच गुना है। सोशल मीडिया पर जश्न, राजनीतिक दावे और राष्ट्रीय इज़्ज़त की बातें छाई रहीं। मगर जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया ने हक़ीक़त बताई: साल 1999 की रिपोर्ट के मुताबिक, वहाँ सिर्फ़ 160 किलो सोने का अनुमान है। चंद दिनों में “गोल्ड रश” भाप बनकर उड़ गया।
इसी तरह बिजनौर (2016) में तांबे के बर्तनों को “हड़प्पा का सोना” समझकर गांव के लोग पागलों की तरह खुदाई करने लगे। झारखंड (2022) में एक तांत्रिक ने गांव वालों को “जादुई ख़ज़ाने” का झांसा देकर गड्ढे खुदवाए। यहाँ तक कि पद्मनाभस्वामी मंदिर (केरल, 2021) में भी “नए खज़ाने के तहख़ाने” की अफ़वाह आग की तरह फैल गई, जिसे मंदिर प्रशासन ने साफ़ नकार दिया। बार-बार, कल्पना ने हक़ीक़त को मात दी, जब तक कि अफ़वाह झूठी साबित नहीं हो गई।
ख़ज़ाने की कहानियाँ तो हंसी-मज़ाक में भुलाई जा सकती हैं। लेकिन धर्मस्थल का मामला साबित करता है कि झूठे आरोप—ख़ासकर महिलाओं पर अत्याचार और रेप जैसे नाज़ुक मुद्दों पर किस तरह खतरनाक जुनून भड़का सकते हैं।
दुनिया में भी ऐसी मिसालें हैं। लीसा एफ. रेप केस (जर्मनी, 2016) में रूसी और जर्मन मीडिया ने फैलाया कि एक 13 साल की लड़की को “मध्य-पूर्वी शरणार्थियों” ने अगवा करके बलात्कार किया। बाद में जाँच में साबित हुआ—न तो अगवाही, न बलात्कार। मगर तब तक अफ़वाह जर्मनी का सामाजिक माहौल ज़हरीला बना चुकी थी।
भारत में ही पश्चिम बंगाल (2019) में “बूथ कैप्चरिंग” की अफ़वाहों ने लोकतंत्र पर ही सवाल खड़े कर दिए। वीडियो वायरल हुए, दोबारा चुनाव की माँग उठी। बाद में चुनाव आयोग ने साफ़ किया कि वीडियो क्लिप्स या तो पुरानी थीं या एडिट की गई थीं।
अफवाहें सोने के लालच को भी भड़का सकती हैं, और ज़ुल्म व रेप जैसे संवेदनशील मुद्दों को हथियार बना सकती हैं।
आज मीडिया का सनसनीख़ेज़ स्वभाव, सोशल मीडिया की वायरल होने की प्रवृत्ति और राजनीतिक मौक़ापरस्ती—फ़ेक न्यूज़ को तेज़ रफ़्तार देकर सामाजिक तनाव पैदा कर रही है। इसका इलाज सिर्फ़ जागरूकता, जिम्मेदार रिपोर्टिंग और तथ्य-जाँच (Fact-Checking) में है।
धर्मस्थल का मामला भले ही भुला दिया गया हो, जैसे उन्नाव और सोनभद्र, मगर उससे मिला सबक याद दिलाता है—फ़ेक न्यूज़ सिर्फ़ झूठ नहीं, एक सामाजिक ज़हर है।