भारत का नया इश्क़: प्यार जो तोड़ रहा है जात-पात की दीवार

Dharmender Singh Malik
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बृज खंडेलवाल

किसी छोटे शहर की गली में जब एक लड़की किसी दूसरी जाति के लड़के का हाथ थाम लेती है, उसके साथ कॉफ़ी पीने चली जाती है — तो समझ लीजिए, यह सिर्फ़ मोहब्बत नहीं, बग़ावत है। यह वो इश्क़ है जो ऊंच नीच की दीवारों, जात-पात की सरहदों, और सदियों पुरानी सोच के ताले तोड़ रहा है। यह नया भारत है — जहाँ प्यार अब पाप नहीं, परिवर्तन की पुकार बन गया है।

आज भारत एक चौराहे पर खड़ा है — क्या हम पुरानी कट्टरताओं की जंजीरों में कै़द रहेंगे, या एक आज़ाद, उदार और एकजुट समाज की ओर बढ़ेंगे? इस सवाल का जवाब संसद की बहसों या चुनावी घोषणाओं में नहीं, बल्कि उन दो दिलों में छिपा है जो जाति-धर्म की दीवारें लांघकर एक-दूसरे से मोहब्बत करने की हिम्मत करते हैं।

भारत का सामाजिक ढाँचा जाति, उपजाति और मज़हबी पहचान के धागों से इतनी मज़बूती से बुना है कि यह वाराणसी के प्राचीन घाटों जितना पुराना और दिल्ली की चमक जितना नया लगता है। लेकिन यही बुनावट कई बार दमघोंटू भी बन जाती है। उन हज़ारों जोड़ों से पूछिए जो अपनी शादी की रात ख़ुशियाँ मनाने की बजाय छिपते फिरते हैं — सिर्फ़ इसलिए कि उनका प्यार समाज की परंपराओं के ख़िलाफ़ है। उनके घर वाले भूल जाते हैं कि इंसान की पहचान उसके जन्म से नहीं, उसके कर्म और इंसानियत से होती है।

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दार्शनिक जे. कृष्णमूर्ति ने कहा था — “पहचान से मुक्ति में ही प्रेम जन्म लेता है।” मगर सियासत इन पहचान की दीवारों पर ही टिकी है। कभी इन्हें जोड़ने की कोशिश होती है, तो कभी वोटों के लिए इनका शातिराना इस्तेमाल। नतीजा वही — एक समुदाय को लाभ, दूसरा उपेक्षित। यह सिलसिला चलता रहता है। और तब प्रेम ही एकमात्र रास्ता बनता है — जो हर दीवार को ढहाने की ताक़त रखता है।

पब्लिक कॉमेंटेटर प्रोफेसर पारस नाथ चौधरी कहते हैं, “भारत में अंतरजातीय और अंतरधार्मिक विवाह महज़ व्यक्तिगत फ़ैसले नहीं हैं, यह सामाजिक इन्क़लाब की शुरुआत है। हर ऐसा विवाह भेदभाव की दीवार से एक ईंट उखाड़ देता है। जब बिहार की लीला और केरल का अर्जुन बैंगलोर की किसी कैंटीन में मिलते हैं, तो सिर्फ़ दो दिल नहीं, दो संस्कृतियाँ भी मिलती हैं — भाषा, खानपान, कहानियाँ और सपने। उनके बच्चे सिर्फ़ दो ख़ूनों का संगम नहीं, बल्कि एक सच्चे बहुल भारत की तस्वीर होते हैं।”

यह ख़ामोश इश्क़ अब शहरों और सोच दोनों को बदल रहा है। ताज़ा आंकड़ों के मुताबिक़, भारत में अंतरजातीय विवाह अब कुल शादियों का लगभग 5% हो गए हैं — जो एक दशक पहले के 3% से कहीं ज़्यादा हैं। उत्तर प्रदेश और राजस्थान जैसी सरकारें भी अब ऐसे विवाहों को प्रोत्साहित कर रही हैं। मगर असली ज़रूरत सिर्फ़ आर्थिक मदद की नहीं, बल्कि मज़बूत क़ानूनी सुरक्षा और सामाजिक स्वीकार्यता की है।

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शहर इस बदलाव की प्रयोगशाला बन गए हैं। कॉलेज, दफ़्तर, और tech पार्क अब नए मिलन-स्थल हैं — गाँव के चौक की शकभरी नज़रों से दूर। दिल्ली-मुंबई जैसे महानगरों में आज हर दस में से एक जोड़ा जाति या धर्म की सीमाएँ तोड़ चुका है। इसकी सबसे बड़ी वजह है — महिलाओं की बढ़ती आज़ादी। अब वे पढ़ रही हैं, कमाई कर रही हैं, और अपने फैसले ख़ुद ले रही हैं। जब औरत अपने जीवन की मालिक बनती है, तो समाज की पुरानी सीमाएँ अपने आप ढह जाती हैं।

इस बदलाव की रीढ़ है 1954 का विशेष विवाह अधिनियम (Special Marriage Act) — भारत का गुमनाम हीरो। इसने धर्मनिरपेक्ष विवाह को संभव बनाया, जहाँ प्यार को धर्म बदलने की शर्त नहीं लगती। जैसा कि अमर्त्य सेन ने कहा था — “कोई समाज उतना ही समृद्ध होता है, जितनी उसमें असहमति और बहुलता की गुंजाइश होती है।”

सोशल एक्टिविस्ट मुक्ता गुप्ता कहती हैं, “लेकिन तमाम तरक़्क़ी के बावजूद, समाज का एक हिस्सा अब भी पुरातन सोच में जकड़ा है। एनसीआरबी के आँकड़े बताते हैं कि हर साल तीन सौ से ज़्यादा लोग ‘ऑनर किलिंग’ का शिकार बनते हैं — यानी परिवार अपनी “इज़्ज़त” के नाम पर अपने ही बच्चों की जान ले लेते हैं। यह उस मानसिकता की निशानी है जो अब भी इंसान को इंसान नहीं, जाति और मज़हब से पहचानती है।”

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मगर प्यार की ताक़त कहीं ज़्यादा गहरी है। ऐसे रिश्तों से जन्मे घर नए संस्कार गढ़ते हैं। रीति-रिवाज़ एक-दूसरे में घुल-मिल जाते हैं। दिवाली और क्रिसमस, ईद और होली — सब एक ही छत के नीचे मनाई जाती हैं। बच्चे कई भाषाएँ बोलते हैं, कई संस्कृतियाँ समझते हैं, और दुनिया को ज़्यादा खुली निगाह से देखते हैं। समाजशास्त्रियों का कहना है कि ऐसे बच्चे ज़्यादा सहनशील, समझदार और सांस्कृतिक रूप से समृद्ध होते हैं। विज्ञान भी कहता है कि मिश्रित जीन पूल से आने वाली पीढ़ियाँ ज़्यादा स्वस्थ होती हैं।

सामाजिक कार्यकर्ता पद्मिनी अय्यर के मुताबिक, “ये परिवार समाज के लिए जीवित उदाहरण हैं — कि मोहब्बत किसी संविधान से नहीं, इंसानियत से चलती है। अगर हम सच में बराबरी और न्याय वाला भारत चाहते हैं, तो नारे और भाषण नहीं, इस बदलाव को खुले दिल से अपनाना होगा। जैसा कि डॉ. राम मनोहर लोहिया ने कहा था — “रोटी और बेटी के बंधनों से जाति तोड़ो।” यही है असली इंक़लाब — चुपचाप, बिना नारे, बिना झंडे — मगर सबसे असरदार।

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Editor in Chief of Agra Bharat Hindi Dainik Newspaper
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