देश में इन दिनों काम के घंटों और वर्क कल्चर को लेकर एक नई बहस छिड़ी हुई है। वहीं, एक कंपनी के चीफ ऑपरेटिंग ऑफिसर (COO) ने एक पुरानी घटना का जिक्र किया है, जिसमें एक कैंडिडेट का रिज्यूमे केवल इसलिए रिजेक्ट कर दिया गया था, क्योंकि उसमें उसने अपनी हॉबी के रूप में गिटार बजाना और मैराथन दौड़ने का जिक्र किया था। बॉस ने इस पर प्रतिक्रिया दी और कहा, “यह सब करेगा तो काम कब करेगा?”
यह मामला वर्क कल्चर और काम के घंटों को लेकर जारी बहस को और भी गरमा देता है, जिसमें कुछ भारतीय कंपनियों में पारंपरिक सोच और आधुनिक बदलावों के बीच अंतर दिखाई दे रहा है।
गिटार बजाना-मैराथन दौड़ना पड़ा भारी
टैटलर एशिया (Tatler Asia) के COO परमिंदर सिंह ने इस घटनाक्रम को शेयर करते हुए बताया कि जब वह भारत में एक कंपनी के मार्केटिंग टीम का हिस्सा थे, तब उनके बॉस ने एक उम्मीदवार का रिज्यूमे सिर्फ इस वजह से रिजेक्ट कर दिया, क्योंकि उसमें गिटार बजाना और मैराथन दौड़ने जैसे शौक थे। उन्होंने कहा, “मुझे याद है कि हमारे बॉस ने कहा, ‘यह आदमी यह सब करता है, तो काम कब करेगा?'”
यह घटना इसलिए चर्चा का विषय बन गई, क्योंकि सामान्यतः कंपनियों में स्पोर्ट्स और एक्स्ट्रा करिकुलर एक्टिविटीज को अच्छा माना जाता है, और यह उम्मीदवार का रिजेक्ट होना थोड़ा चौंकाने वाला था। हालांकि, इस कैंडिडेट की मार्केटिंग में बेहतरीन योग्यता होने के बावजूद उसके हॉबीज के कारण उसकी उम्मीदवारी खारिज कर दी गई।
बॉस का दृष्टिकोण: काम पहले, हॉबी बाद में
टैटलर एशिया के COO परमिंदर सिंह ने इस मामले पर अफसोस जाहिर करते हुए कहा कि उन्हें खेद है कि उस उम्मीदवार को उनकी टीम में जगह नहीं मिल सकी। उन्होंने भारतीय वर्क कल्चर पर विचार करते हुए कहा कि जब यह घटना हुई थी, तब वह भारत से बाहर थे, और उन्हें लगा था कि चीजें बदल चुकी होंगी, लेकिन उन्हें अब यह महसूस हुआ कि ऐसी मानसिकता अभी भी जारी है।
परमिंदर सिंह ने गूगल का उदाहरण देते हुए कहा कि गूगल में एक समय ऐसा नियम था कि अगर कोई ओलंपिक में अच्छा प्रदर्शन करता था, तो वह आसानी से गूगल के ऑफिस में नौकरी पा सकता था। उन्होंने इसे एक सकारात्मक पहलू बताया, लेकिन भारतीय कंपनियों के संदर्भ में इस तरह के बदलाव की जरूरत पर जोर दिया।
90 घंटे वर्क वीक पर बहस
इस घटनाक्रम के बीच, 90 घंटे वर्क वीक की बहस भी चर्चा में है, जिसे हाल ही में इंजीनियरिंग दिग्गज कंपनी एल एंड टी के चेयरमैन एस.एन. सुब्रह्मण्यन ने उठाया। उन्होंने कर्मचारियों को सलाह दी कि उन्हें सप्ताह में 90 घंटे काम करना चाहिए, और अफसोस जताया कि वह रविवार को काम पर नहीं बुला पा रहे हैं। यह बयान सोशल मीडिया पर जबरदस्त तरीके से वायरल हुआ और इसकी आलोचना भी हुई।
इस मामले ने एक नई बहस को जन्म दिया है कि क्या ज्यादा काम करने से कर्मचारियों की उत्पादकता बढ़ती है या यह उनके मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य पर नकारात्मक असर डालता है। ऐसे में वर्क कल्चर पर इस तरह के विचारों को लेकर दुविधा और उलझन बनी हुई है।
क्या बदलने की आवश्यकता है?
यह मामला भारतीय वर्क कल्चर में एक गहरी बहस को जन्म देता है कि क्या हमें अपने परंपरागत सोच को बदलने की जरूरत है? क्या हमें कर्मचारियों को सिर्फ काम के लिए देखना चाहिए, या उनके व्यक्तिगत विकास, शौक और रुचियों को भी मान्यता देनी चाहिए? क्या गिटार बजाना और मैराथन दौड़ना जैसी हॉबी किसी कर्मचारी की कार्य क्षमता पर प्रतिकूल असर डालती हैं, या ये उसके समग्र व्यक्तित्व को समृद्ध करने के संकेत हैं?
भारतीय कंपनियों में कार्य संस्कृति और कर्मचारियों के व्यक्तिगत जीवन के बीच संतुलन स्थापित करना जरूरी है। जहां एक ओर कामकाजी घंटे बढ़ाने की बातें हो रही हैं, वहीं दूसरी ओर यह भी समझना जरूरी है कि कर्मचारियों का मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य भी उतना ही महत्वपूर्ण है। ऐसे में वर्क कल्चर पर चल रही बहस को लेकर कई बदलावों की आवश्यकता महसूस हो रही है, ताकि कर्मचारियों को सिर्फ काम की मशीन न समझा जाए, बल्कि उनके व्यक्तिगत और पेशेवर विकास को समान महत्व दिया जाए।